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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लायक माना जाता है। इसे उसका समाज, जिससे उसका नाता है, बहुत पसन्द करता है। जहाँतक दबावको बात है, मुझे विश्वास है कि जिन्होंने इस शब्दका प्रयोग किया है, उन्होंने ऐसा जल्दबाजीमें किया है। यह बिल्कुल साफ है कि अगर ब्रिटिश भारतीय व्यापारी व्यापारिक परवाने (लाइसेंस) नहीं लेते तो परवानोंके बिना व्यापार करनेके जुर्म में उनपर मुकदमे चलाया जाना बहुत उचित होगा। सरकार मानती है कि उसका पक्ष ठीक है। इसलिए उसे परवाना- कानूनको अवहेलना करनेवाले व्यापारियोंके साथ हर तरहकी कड़ाई करनेका पूरा अधिकार है। तब वह भारतीय देनदार क्या करे जिसके पास बहुत-सा माल मौजूद है और जिसे अपनी अन्तरात्माका खयाल रखना है? उसके पास इतना नकद रुपया तो है नहीं कि वह तत्काल अपने सभी लेनदारोंका पावना चुका दे । वह अपने लेनदारोंका खयाल किये बिना और उनको अनुमति लिये बिना अपना माल नीलाम भी नहीं कर सकता। वह यह भी देखता है कि उसके पास जितनी मालियत है वह उसके लेनदारोंका पावना चुकाने के लिए काफी है। राजनीतिक कारणोंको छोड़ दें तो ऊपर बताई गई स्थितिमें मेरे खयालसे एक देनदारके लिए इसके अलावा दूसरा कोई सम्मानजनक मार्ग नहीं हो सकता कि वह अपने लेनदारोंको अपनी सारी हालत बता दे; अपने-आपको उनके हाथोंमें सौंप दे और कह दे कि वह उनके कहने के मुताबिक ऐसा हर काम करनेके लिए तैयार है जिसे वे अपने लाभको दृष्टि से वांछनीय समझें । वह सिर्फ अपनी अन्तरात्माके विपरीत न जायेगा। मेरे इस कामका एक राजनीतिक अर्थ लगाया जायेगा; परन्तु वह अनिवार्य है। इसका सीधा- सादा कारण यह है कि यह काम सरकार द्वारा पैदा की गई स्थितिपर आधारित है। परन्तु मैं अपनी ओरसे जनताको विश्वास दिला सकता हूँ कि जहाँतक इस कदमके राजनीतिक पहलूका सम्बन्ध है, मैंने इसे यूरोपीय थोक पेढ़ियाँ क्या कार्रवाई कर सकती हैं, उसका खयाल किये बिना उठाया है। मैं इतना ही चाहता हूँ कि मेरे लेनदारोंका बचाव हो जाये और मुझे और मेरे देशवासियों को अपनी इच्छाके सामने झुकाने के लिए सरकार की मुझसे आर्थिक सहायता लेनेकी चाल है --जिसे मैं अन्यायपूर्ण, अनीतियुक्त और अनुचित मानता हूँ भी बेकाम हो जाये ।

[ अंग्रेजोसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३०-१-१९०९