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१०६. पत्र: सर चार्ल्स ब्रूसको

[१]

[ जोहानिसबर्ग]
जनवरी २७, १९०९

प्रिय महोदय,

आप ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंके मामलेको लगातार जो वकालत करते रहे हैं, उसके लिए में ब्रिटिश भारतीय संघ ( ब्रिटिश इंडियन असोसिएशन ) की ओरसे आपको नम्रतापूर्वक धन्यवाद देता हूँ । साम्राज्यके विशिष्ट सदस्योंकी सहानुभूतिसे मेरे संघर्ष-निरत देशवासियोंको बहुत प्रोत्साहन मिलता है और वह सहानुभूति उस लड़ाईके लिए, जो कभी-कभी अनन्त प्रतीत होती है, उन्हें बल देती है। हम सब यह अनुभव करते हैं कि हम केवल अपने उद्देश्यके लिए नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि साम्राज्यकी नेकनामीके लिए भी लड़ रहे हैं ।

आपका, आदि,
अ० मु० काछलिया
अध्यक्ष,
ब्रिटिश भारतीय संघ

सर चार्ल्स ब्रूस, जी० सी० एम० जी०
लन्दन
[ अंग्रेजी से ]
इंडियन ओपिनियन, ६-२-१९०९
  1. ( १८३६-१९२०); मॉरिशसके गवर्नर, १८९७-१९०४; साम्राज्य और साम्राज्यीय नीति-विषयक अनेक पुस्तकों के लेखक; १९०८ में एम्पायर रिव्यू में छपे लेखोंके आधारपर ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयोंकी समस्यापर एक पुस्तिका प्रकाशित की; अक्सर इस समस्यापर अखबारोंमें भी लिखा करते थे । ४ नवम्बर, १९०८ के मॉर्निंग पोस्टमें एक पत्र भेजकर उसकी इस दलीलको गलत बताया कि महारानी विक्टोरियाकी १८५८ की घोषणाको शर्तोंमें भारतकी सीमाओंसे बाहरके ब्रिटिश भारतीयोंके अधिकार नहीं आते। उन्होंने घोषणा की अपनी व्याख्या के समर्थन में लॉर्ड सेल्बोर्नके १८९७ में दिये गये भाषणका हवाला देते हुए कहा कि उक्त घोषणामें हमें जिन “ कर्तव्योंका दायित्व " सौंपा गया है उनसे भारतके बाहर रहनेवाले भारतीयोंको वंचित रखना “साम्राज्यके अस्तित्वको सीधे नामंजूर करना है । "