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मेरा जेलका दूसरा अनुभव [५]

दो पौंड दूध और डबल-रोटी देनेका भी हुक्म दिया। उनकी तबीयत इससे फिर ठीक हो गई। श्री रविकृष्ण तालेवंतसिंहकी तबीयत अन्ततक खराब ही रही। इसी तरह काजी और श्री बावजीर अन्ततक बीमार रहे। श्री रतनसी सोढा चातुर्मास करते थे और इसलिए एक ही बार खाते थे। खुराक जैसी चाहिए वैसी न मिलने के कारण, वे भूख सह तो लेते थे, लेकिन अन्त में उनके शरीरपर सूजन आ गई थी। इसके सिवा और भी कुछ लोगोंको मामूली बीमारियाँ हुईं ।

लेकिन सब मिलाकर अनुभव यह रहा कि बीमार भारतीयोंने भी हार नहीं मानी। देशके लिए वे यह सारा कष्ट उठाने के लिए तैयार थे ।

कुछ अड़चनें

अनुभव यह हुआ कि बाहरके कष्टोंकी अपेक्षा भीतरी कारणोंसे होनेवाले कष्ट ज्यादा दुःखदायी थे । हिन्दू-मुसलमान तथा ऊँच-नीचके भेदका आभास कभी-कभी जेलमें भी मिल जाता था। जेलमें सभी वर्गों और सभी वर्णोंके हिन्दू एक साथ रहते थे। इससे यह बात स्पष्ट हो गई कि हम स्वराज्य चलानेके कितने अयोग्य हैं; यद्यपि यह भी समझमें आ गया कि स्वराज्य हम चला ही नहीं सकते, सो भी नहीं है क्योंकि अंतमें इस तरहकी सभी अड़चनें समाप्त हो गईं।

कुछ हिन्दू यह कहते थे कि हम मुसलमानोंके हाथका बनाया हुआ खाना नहीं खा सकते। मैं अमुक आदमीके हाथका बनाया हुआ खाना नहीं खा सकता -- ऐसा कहनेवाले मनुष्यको हिन्दुस्तानके बाहर कदम ही नहीं रखना चाहिए। मैंने यह भी देखा कि काफिर या गोरे हमारे अन्नको छूलें, तो उसमें इन लोगोंको कोई आपत्ति नहीं होती थी। एक बार एक भाईने ऐसा सवाल उठाया कि अमुक आदमी तो ढेढ़[१] है, उसके पास में नहीं सो सकता। यह प्रसंग भी हमारे लिए लज्जाजनक था। इस सवालकी गहराईमें जानेपर मालूम हुआ कि ऐसी आपत्तिका कारण यह नहीं था कि आपत्ति उठानेवाले भाईको स्वयं इसमें कोई बाधा थी । इसके पीछे कारण यह था कि यदि इस घटनाकी खबर देश में पहुँची, तो उनके जातिवाले लोग आपत्ति करेंगे। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि इस तरह ऊँच-नीचके ढोंगसे और जातिके अत्याचारके डरसे हम सत्यको छोड़कर असत्यका पोषण कर रहे हैं। यदि हम जानते हैं कि ढेढ़का तिरस्कार करना ठीक नहीं है, और तब भी जातिके या दूसरे किसीके गलत डरसे सत्यका त्याग करते हैं तो हम सत्याग्रही कैसे कहे जा सकते हैं? मैं तो चाहता हूँ कि इस लड़ाई में भाग लेने वाले भारतीय जातिके खिलाफ, कुटुम्बके खिलाफ और जहाँ अधर्म देखें वहाँ उसके खिलाफ सत्याग्रही बनकर लड़ें । मेरा निश्चित मत है कि वे ऐसा नहीं करते, इसीलिए लड़ाईमें इतना ढीलापन है। हम सब भारतीय हैं। तो फिर एक ओर आपसमें निरर्थक भेद रखकर लड़ना और दूसरी ओर (सरकारसे) हक माँगना, इन दोनों बातोंका मेल नहीं बैठता । अथवा, देशमें हमारा क्या होगा, इस डरसे यदि हम जो सही है वह नहीं करते, तो फिर अपनी लड़ाइयोंमें हम कैसे जीतेंगे ? डरकर कोई काम छोड़ देना तो कायरताका लक्षण है। और सरकारके खिलाफ हमारा जो महायुद्ध चल रहा है, उसमें कायर भारतीय आखिरतक टिक नहीं सकते।

  1. अन्त्यजोंकी एक जाति ।