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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भारतको तलवारके बलसे नहीं, बल्कि हमारी आपसी फूटके कारण हमारी ही शक्तिका लाभ उठाकर जीता गया है। इसलिए ऊपरके नियमके अनुसार तो हमारी फूटको कायम रखकर और हमारी ही शक्तिका उपयोग हमारे विरुद्ध करके भारतको कब्जेमें रखा जा सकता है। इस दृष्टि से आगे सोचनेपर हम यह भी देखते हैं कि यदि हम भारतीय, हिन्दू और मुसलमान, संगठित हो जायें और अपने देशवासियोंको ही कुचलने से इनकार कर दें तो भारत परतन्त्र दशामें न रहे । ऐसा होते हुए भी अंग्रेजी झंडा भारतके ऊपर रह सकता है -- किन्तु वह दूसरी नीतिसे और लोगोंकी स्वतन्त्र सम्मतिसे। हाल में भी लोगोंकी सम्मति तो है; परन्तु उसके पीछे एक प्रकारकी लाचारी है। हम भारतकी बात यहीं खत्म करते हैं। हम इसमें से केवल ट्रान्सवालको लड़ाईके लिए सार निकाल लेना चाहते हैं।

तो हमने देखा कि हम जिस उपायसे अपनी माँग सरकारसे मंजूर कराते हैं, उसी उपायसे उस माँगकी मंजूरीका लाभ भी उठा सकते हैं। यह बात ठीक हो तो यह निश्चित हो गया कि सत्याग्रहके उपायका अवलम्बन सचाईसे करना चाहिए। उसके ऊपर कोई लांछन नहीं होना चाहिए। इस विचारके अनुसार यदि हमारा पूरा जोर आजमाया जाता है तो इसमें हमारा लाभ है । आज यदि हम नाटकीय नहीं, सच्चा बल दिखायेंगे तो वह बल भविष्यमें पूरी तरहसे काम आयेगा ।

अब लड़ाई दूकानदारोंके ऊपर आ टिकी है। यही ठीक भी है। व्यक्तिगत स्वार्थ तो दुकानदारोंका ही बड़ा है। उनकी इज्जत ज्यादा है। इसलिए कानूनसे होनेवाला अपमान भी उन्हींको ज्यादा अखरता है। अतः, अब दूकानदारोंको बहुत सँभलना है। हमारा संवाद- दाता खबर देता है कि बहुत-से दूकानदार हिम्मत हार बैठे हैं। उन दूकानदारोंमें जरा भी शर्म हो तो वे [फिर हिम्मत करके] लड़ाईमें भाग ले सकते हैं। वे फेरी लगाकर जेल जा सकते हैं। उनमें खरी ईमानदारी होगी तो सरकार उनको जेल में भेजे बिना रह ही नहीं सकती। श्री काछलिया और श्री अस्वात तो दुनियामें थोड़े ही होते हैं। दूसरे भार- तीय दुकानदार उनके मुकाबले आधा भी जोर लगायें तो लड़ाई चमक सकती है। वे ऐसा करें या न करें, जो जेलमें पहुँच गये हैं और जिनमें अभी जेल-महलमें जानेका उत्साह है उनका कर्तव्य स्पष्ट है । उनको तबतक बार-बार जेल जाना है, जबतक न्याय नहीं मिल जाता। उनका माल जाता है तो भले ही जाये। उनको तो प्राण जाने तक लड़ना है। इसमें सब आ गया । हम कामना करते हैं कि ईश्वर भारतीयोंको सुबुद्धि दे। श्री हॉस्केन आदि गोरोंकी चिट्ठी[१] इंग्लैंड पहुँचनेके बाद भारतीय डरकर बैठ जायें तो यह हमारी कोई कम बदनसीबी नहीं कहीं जायेगी। यह तो हमारी बदनामीकी हद मानी जायेगी । हमें विश्वास है कि जो भारतीय दो वर्षोंसे लड़ रहे हैं, वे ऐसी बदनामीके पात्र हरगिज नहीं बनेंगे ।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ६-२-१९०९
  1. यह पत्र जनवरी ६, १९०९ को लन्दन टाइम्सको लिखा गया था। देखिए परिशिष्ट ११ ।