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११९. श्री राँदेरियाकी अपील

हम श्री राँदेरियाकी अपील में हार गये।[१] इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं। श्री नायडूके मुकदमेमें भी न्यायाधीशोंका जो रुख था उससे जाहिर हो गया था कि हम यह अपील भी हारेंगे। ये दोनों अपीलें सत्याग्रहियोंको संकेत देती हैं कि उन्हें अपील सिर्फ खुदासे करनी है। दुनियवी न्यायालय उनके लिए नहीं हैं। हो भी कैसे सकते हैं ? अन्धे राजाके न्याया-लय भी अन्धे ही होते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि न्यायालयोंके अधिकारी न्यायाधीश अन्धे हैं, बल्कि अर्थ यह है कि अधिकारी यदि अन्यायपूर्ण कानूनपर अमल करते हैं तो उसका दूसरा क्या परिणाम हो सकता है ? इसलिए ठीक तो यह है कि सत्याग्रही अपील अपनी शक्तिसे करे; ईश्वरमें उसकी जो आस्था है और खुदाने उसे जो बल दिया है, उससे करे। उसकी यह अपील कभी व्यर्थ न जायेगी ।

कुछ भारतीय तो इस अपीलसे हारे हुए-से दिखाई देते हैं। उनके मनको भारी धक्का लगा जान पड़ता है। इन भारतीयोंको डरपोक समझना चाहिए । [ वे सोचते हैं : ] "हाय, हाय, अब तो देशसे निर्वासित होना ही पड़ेगा ! किन्तु " निर्वासन " का अर्थ क्या है ? निर्वासित किये जानेपर वापस तो आना ही है । निर्वासित होने या जेल जाने - दोमें से चुनाव करना पड़े तो एक हद तक तो निर्वासित ही होना चाहिए, क्योंकि निर्वासित किया गया व्यक्ति फिर और लड़ सकता है । अपील हारनेसे हक नहीं मारे जाते । मारे तो हम तब जायेंगे जब हक छोड़ देंगे। जो ट्रान्सवालको अपना देश माने बैठे हैं वे सरकारके निकालनेसे थोड़े ही चले जायेंगे। वे तो अपनी मर्जीसे ही जायेंगे । इसलिए हमें कहना चाहिए कि रांदेरियाकी अपीलका खयाल किसीको करना ही नहीं है ।

[गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १३-२-१९०९

१२०. डंकनके विचार

श्री पैट्रिक डंकन स्वशासन मिलने से पहले ट्रान्सवालके उपनिवेश सचिव थे। उन्होंने अभी हालके सम्मेलनमें खास हिस्सा लिया था । 'स्टेट' दक्षिण आफ्रिकाकी एक महत्वपूर्ण मासिक पत्रिका है। उसमें बहुत बड़े लोग ही लिखते हैं। उसके संरक्षक करोड़पति गोरे हैं।

इस मासिक पत्रिकामें श्री डंकनने एशियाई प्रश्नके सम्बन्धमें एक लेख लिखा है। वह बहुत गम्भीर और पढ़ने लायक है । इसके अतिरिक्त, उसका लेखक स्वयं इतना प्रभावशाली व्यक्ति है कि उसमें भारतीयोंकी माँगोंको स्वीकृत करानेकी सामर्थ्य है ।

जो लोग अंग्रेजी जानते हैं वे इस लेखको अंग्रेजीमें पढ़ लें। हमारे पत्रमें उसका तर्जुमा छापने लायक जगह नहीं है। उसे छापनेकी जरूरत भी नहीं है। उसका एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक है, जिसे सब भारतीय जानते हैं ।

  1. मामलेकी पहली सुनवाईके लिए देखिए " जोहानिसबर्गकी चिट्ठी”, पृष्ठ ४ ।