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१३३. एम० ए० की परीक्षा

ट्रान्सवालकी लड़ाईपर बहुत कुछ निर्भर है, इसलिए उसके सम्बन्धमें हम बहुत और बार-बार लिख रहे हैं। यही ठीक लगता है। हम सब भारतीयोंसे निवेदन करते हैं कि ऐसी लड़ाई भारतीय समाजके हाथ फिर नहीं आयेगी। लड़ाई यहाँतक पहुँची है, यह मामूली बात नहीं है ।

लेकिन, कुछ भारतीय सोचते हैं : सैकड़ों भारतीय हार गये हैं। अब क्या लड़ें ? " इसे हम नासमझी मानते हैं। जैसे कुछ भारतीय हारे हैं, वैसे ही दूसरे सैनिक दलोंमें भी कुछ लोग हारते आये हैं। इसमें कोई नई बात नहीं है।

इस बारकी लड़ाई एक तरहसे हमारी परीक्षा है। हम पढ़ रहे हैं। सब पढ़नेके लिए तैयार हुए। पहली पोथी हजारोंने पढ़ी। दूसरी पोथी पढ़ते-पढ़ते कुछ लोग ढीले पड़ गये । वे रह गये। इस तरह करते-करते हम सातवीं पोथी तक पहुँचे । अब तो कठिन समय आ गया । बहुत-से लोगोंने पढ़ाई छोड़ दी। फिर भी खासे लोग मैट्रिक तक पहुँच गये। लेकिन इससे आगे बढ़नेकी हिम्मत कुछ ही लोगोंको हुई। इसके बावजूद अच्छी संख्या में लोग आगे बढ़े।

अब यह आखिरी सीढ़ी है। इसमें तो एम० ए० की उपाधि लेनी है। यह तो सैकड़ों लोग नहीं लेते। कुछ ही ले सकते हैं। तो क्या दूसरे लोग परीक्षा नहीं देते, इसलिए परीक्षा देनेवाले हारे हुए कहलायेंगे ? यह तो कभी नहीं हो सकता । जो एम० ए० हो गये वे तो जीते ही; लेकिन इतना ही नहीं, उनके पीछे जो दूसरे लोग रहे, वे भी दमक कर निकलेंगे ।

इस प्रकार हम इस समय बचे सत्याग्रहियोंको एम० ए० के परीक्षार्थियोंका रूप देते हैं । उनको निराश नहीं होना चाहिए; बल्कि अबतक जमे रहनेपर गर्व करना चाहिए । समाजमें बहुत पढ़े-लिखे लोग कम ही होते हैं। लेकिन, कम होनेपर भी उनसे सहायता अधिकसे-अधिक मिलती है। ट्रान्सवालमें ऐसी ही स्थिति है। फिर चाहे जो भारतीय इस समय लड़ रहे हैं वे कम ही रह गये हों, लेकिन उनकी सहायताको बहुत समझना है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २७-२-१९०९