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पत्र: अखवारोंको

स्थितिपर वापस आ गया, अर्थात् फिर दिनमें एक बार भोजन करने लगा। मैंने जेल-निदेशकका[१] ध्यान एक बार फिर इस तथ्यकी ओर आकर्षित किया कि मैं अंशतः भूखा रखा जा रहा हूँ, और जब मैं डेढ़ महीनेकी सजा भुगत चुका तब उत्तर मिला कि जबतक भारतीय भोजन- तालिकामें परिवर्तन नहीं होता तबतक जहाँ भी भारतीय कैदियोंका जमाव है, घी दिया जायेगा। मैंने इसके लिए कृतज्ञता अनुभव की और उसके बाद मुझे अपना सायंकालका भोजन करनेमें कोई हिचक नहीं हुई। इसके बाद जलपान न करनेसे मुझे कोई हानि नहीं हुई।

स्वास्थ्यमें बिगाड़

जेल-निदेशक निरीक्षणके लिए आये और उन्होंने मुझसे मेरे सम्बन्धमें सौजन्यपूर्ण पूछ-ताछ की। जब उन्होंने पूछा कि तुम्हें कोई शिकायत तो नहीं है, मैंने उन्हें कुछ बातें बताईं, जिनकी मैं चर्चा कर चुका हूँ । फलतः एक तख्त, नम्देकी पट्टी, रातमें पहनने के लिए कमीज और रूमाल मुझे दे दिये गये; पेंसिल और नोटबुकके उपयोगकी अनुमति भी मिल गई। अभीतक मुझे ये चीजें नहीं दी गई थीं। मैं यहाँ यह भी कृतज्ञतापूर्वक कह दूँ कि मुझे किताबोंका यथेष्ट उपयोग करने दिया गया। उन किताबोंसे मुझे बहुत सान्त्वना मिली। मुझे कोठरीमें दर्जीगीरीका जो काम करना पड़ता था उसमें लगभग ७ घंटे रोज झुके रहनेकी जरूरत होती थी। मेरे स्वास्थ्यपर उसका बुरा असर पड़ने लगा । इसलिए मैंने अनुरोध किया कि मुझे ज्यादा मेहनतका काम दिया जाये या, कमसे-कम, खुलेमें सिलाई करने दी जाये । ये दोनों अनुरोध पहले अस्वीकृत कर दिये गये । मेरा खयाल है कि कोठरीमें बिल्कुल बन्द रहनेसे ही लगभग दस दिनतक मेरे सिरकी नसोंमें जोरोंका दर्द रहा और छातीकी बीमारीके लक्षण भी उत्पन्न हो गये । दुबारा निवेदन करनेपर मुझे खुली हवामें सिलाईका काम करनेकी अनुमति दी गई।

केवल सरकार दोषी

मैंने जनरल स्मट्सके सम्बन्धमें श्री लिखटैन्स्टाइनके सामने जो राय जाहिर की थी वह आगे और देखने-भालनेके बाद बदल गई और मैंने अनुभव किया कि ऊपर बताये गये व्यवहारसे उनका कुछ सीधा सम्बन्ध नहीं था। दरअसल, उन्होंने मेरे पढ़नेके लिए दो अच्छी पुस्तकें भेजी थीं, मैं यहाँ इस बातका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करता हूँ। मैंने उनके इस कामको इस बातका प्रमाण माना है कि उनके मनमें मेरे प्रति कोई व्यक्तिगत दुर्भाव नहीं था और उन्होंने मुझे यह श्रेय दिया कि मैंने जो ठीक समझा है वह किया है। और जो-कुछ मुझे सहना पड़ा, उसके लिए मैं किसी कर्मचारीको भी दोष नहीं देता। वे सब शिष्ट और कृपालु थे। मैं विभागके वार्डरोंको जितना भी, धन्यवाद दूं कम है। लगता था कि वे मेरी विशिष्ट स्थितिको अनुभव करते हैं और हर तरह मेरा खयाल रखते हैं। फिर भी मुझे अपनी इस रायपर कायम रहना पड़ता है कि व्यवहार स्वतः पाशविक था। मेरी सजा कड़ी कैदकी सजा थी; किन्तु वह अधिकांशतः लगभग तनहाईकी कैद रही। जेल-विभागके अधिकारी अन्यथा नहीं कर सकते थे, क्योंकि भारतीयोंके वतनी कैदियोंके साथ वर्गीकृत होनेसे मैं केवल वतनी कैदियोंके विभागमें ही रखा जा सकता था। किन्तु यही बात सरकारके सम्बन्धमें नहीं कही जा सकती, जिसने इतने भारतीय कैदी होनेपर भी इस मामलेमें कुछ नहीं सोचा। जब मुझे

  1. डायरेक्टर ऑफ प्रिजन्सका ।