पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 9.pdf/२६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१४७. सत्याग्रही कौन हो सकता है ?

ट्रान्सवालमें सत्याग्रहकी लड़ाई इतनी लम्बी चली है, और ऐसे ढंगसे चली है कि हमें उससे बहुत कुछ देखने-सीखनेको मिला है। बहुत से लोगोंने स्वतः अनुभव प्राप्त किया है। और, इतना तो सभी जान गये हैं कि इस लड़ाईमें हारनेकी बात है ही नहीं। अमुक वस्तु न मिले तो हम देख सकते हैं कि उसमें सत्याग्रहीकी कमजोरी है, सत्याग्रहकी कमजोरी नहीं । यह बात बहुत ध्यानपूर्वक समझने योग्य है । शरीर-बलकी लड़ाईमें ऐसा नियम लागू नहीं होता। उसमें दो सेनाएँ लड़ती हैं, तो [ किसी पक्षकी] हार केवल सैनिकोंकी कमजोरीसे ही हो जाये, ऐसा नहीं होता। लड़नेवालोंके बहुत बहादुर होनेपर भी दूसरे साधन कच्चे हों तो हार हो जाती है। उदाहरणके लिए, अगर उनके मुकाबले विरोधी पक्षके पास हथियार अच्छे हों, या उसको जगह अच्छी मिली हो, या उसकी युद्ध-कला बढ़ी-चढ़ी हो, तो उनकी हार हो सकती है; और ऐसे ही बहुत-से बाहरी कारणोंसे शरीर-बलकी लड़ाईमें लड़नेवाले सैनिकोंकी हार-जीत होती है। परन्तु सत्याग्रहकी विधिसे लड़नेवालोंको बाहरी कारणोंसे बिल्कुल अड़चन नहीं हो सकती। उनके लिए तो केवल उनकी अपनी कमजोरी ही बाधक होती है। इसके अलावा, साधारण लड़ाईमें जो पक्ष हारता है उसके सभी लोग हारे हुए माने जाते हैं, और वे हारते भी हैं। सत्याग्रहमें एककी जीतसे दूसरे भले ही विजयी समझे जायें, किन्तु सबके हार जानेपर भी जो खुद न हारा हो वह दूसरोंकी हारसे नहीं हारता । उदाहरणके लिए, ट्रान्सवालकी लड़ाईमें बहुत-से भारतीय इस भयंकर कानूनके अधीन हो जायें, फिर भी जो उसके अधीन नहीं होता, वह तो अधीन नहीं ही हुआ और इसलिए विजयी ही हुआ ।

तब ऐसी अच्छी--बिना हारकी--एक ही परिणामवाली लड़ाई कौन लड़ सकता है, यह विचार करना जरूरी है। इससे हम ट्रान्सवालकी लड़ाईके कुछ परिणामोंको समझ सकेंगे और यह भी देख पायेंगे कि दूसरे स्थानोंमें तथा दूसरे अवसरोंपर यह लड़ाई कैसे लड़ी जाये और इसमें कौन लड़े।

सत्याग्रहके अर्थपर विचार करते हुए हम देखते हैं कि पहली शर्त यह है कि लड़नेवाले में सत्यका आग्रह-- सत्यका बल --- होना चाहिए, अर्थात् उस व्यक्तिको केवल सत्यके ऊपर निर्भर रहना चाहिए। एक पग दहीमें और एक पग दूधमें रखने [ अर्थात्, दो नावोंपर पैर रखने] से काम न चलेगा। ऐसा करनेवाला व्यक्ति [ शरीर-बल और नैतिक बलके दो पाटलोंके] बीचमें कुचल जायेगा । सत्याग्रह कोई गाजरकी पीपनी नहीं है कि वह बजेगी तो बजायेंगे और नहीं तो खा जायेंगे। ऐसा माननेवाला व्यक्ति भटक-भटककर परेशान ही होता रहेगा। यह बात बिल्कुल बेकार है कि सत्याग्रहकी लड़ाई वही व्यक्ति लड़ता है, जिसमें शरीर- बलकी कमी हो अथवा जो यह मानता हो कि शरीर-बल काम नहीं देता, इसलिए मजबूरन सत्याग्रही बनना पड़ता है। जिनकी ऐसी मान्यता है वे सत्याग्रहकी लड़ाईको नहीं जानते, ऐसा कहा जा सकता है । सत्याग्रह शरीर-बलसे अधिक तेजस्वी है और उसके सामने शरीर- बल तिनकेके समान है। शरीर-बलमें मुख्य बात यह है कि शक्तिशाली पुरुष अपने शरीरकी परवाह न करके संग्राममें जूझता है, अर्थात् वह डरपोक नहीं होता। सत्याग्रही तो अपने शरीरको कुछ भी नहीं गिनता। उसमें डर तो पैठ ही नहीं सकता। इसीलिए वह बाहरी ९-१५