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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हथियार नहीं बाँधता और मौतका डर रखे बिना अन्ततक लड़ता है। अतएव सत्याग्रहीमें शरीर-बलपर निर्भर व्यक्तिके मुकाबले हिम्मत ज्यादा होनी चाहिए । इस प्रकार सत्याग्रहीके लिए सबसे पहले सत्यका सेवन करना, सत्यके ऊपर आस्था रखना आवश्यक है।

उसमें पैसेके प्रति अनासक्ति होनी चाहिए। सम्पत्ति और सत्यमें सदा अनबन रही है और अन्ततक रहेगी। जो सम्पत्तिसे चिपकता है वह सत्यकी रक्षा नहीं कर सकता। यह हमने ट्रान्सवालमें बहुत-से भारतीयोंके मामलोंमें देखा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सत्याग्रहीके पास सम्पत्ति हो ही नहीं सकती। हो सकती है; किन्तु पैसा उसका परमेश्वर नहीं बन सकता । सत्यका सेवन करते हुए पैसा रहे तो ठीक है; अन्यथा उसको हाथका मैल समझकर त्यागने में एक पलके लिए भी झिझक न हो । जिसने अपना मन ऐसा न बनाया हो उससे सत्याग्रह हो ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त, जिस देशमें राजाके विरुद्ध सत्याग्रह करना पड़ता है उस देशमें सत्याग्रहीके पास सम्पत्ति होना मुश्किल बात है। राजाका बल मनुष्य- पर नहीं, उसकी सम्पत्तिपर अथवा उसके भयपर चलता है। राजा प्रजासे जो कुछ कराना चाहता है वह उसका खजाना लूटने या उसके शरीरको नुकसान पहुँचानेका डर दिखाकर करता है। इसलिए अत्याचारी राजाके राज्यमें प्राय: अत्याचारमें भाग लेनेवाले लोग ही पैसा रख या जोड़ सकते हैं । सत्याग्रही अत्याचारमें तो भाग ले नहीं सकता, इसलिए गरीबीमें ही अमीरी मान लेना उसके लिए उचित होता है। उसके पास सम्पत्ति हो तो उसे दूसरे देशमें रखना चाहिए ।

सत्याग्रहीको कुटुम्बका मोह छोड़ना पड़ता है। यह बहुत मुश्किल बात है। किन्तु सत्याग्रह, जैसा उसका नाम है, तलवारकी धार है। अन्तमें इससे भी कुटुम्बका लाभ होता है, क्योंकि कुटुम्बियोंको भी सत्याग्रहकी लगन लगनेका अवसर आता है और यह लगन जिसको लगती है, उसको फिर दूसरी इच्छा नहीं रहती। कोई खास दुःख सहते हुए - धन गँवाते हुए या जेल जाते हुए यह शंका या चिन्ता नहीं होनी चाहिए कि कुटुम्बका क्या होगा । जिसने दाँत दिये हैं वह चबेना भी देगा । जो साँप, बिच्छू, बाघ और भेड़िया आदि भयानक जीव- जन्तुओं या प्राणियोंको भोजन दे रहा है वह मानवजातिको भूलनेवाला नहीं है। हम जो इतनी हाय-हाय करते हैं वह सेर-भर बाजरे या मुट्ठी-भर अन्नके लिए नहीं, बल्कि खट्टे-मीठे स्वादके लिए; ठंड दूर करनेके लायक मामूली कपड़ेके लिए नहीं, बल्कि रेशम और कीमखाबके लिए। यदि हम इन लालसाओंको छोड़ दें तो सिर्फ कुटुम्बके भरण-पोषणको लेकर चिन्ता कम ही रह जायेगी ।

इस सम्बन्धमें यह विचार करने योग्य है कि शरीर-बल आजमानेमें भी इसमें से बहुत- कुछ छोड़ देना पड़ता है। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी सहन करनी पड़ती है, कुटुम्बका मोह छोड़ना पड़ता है और पैसेका त्याग करना होता है। बोअरोंने शरीर-बलकी आजमाइश करते हुए यह सब किया। उनके शरीरी आग्रह और अपने सत्याग्रहमें बड़ा अन्तर यह है कि उनकी बाजी जुएकी बाजी थी। इसके अतिरिक्त उनको अपने शरीर बलका अभिमान हो गया । वे आधा जीतनेपर अपनी पहली दशा भूल गये। वे अत्याचारीके विरुद्ध अत्याचारके हथियारसे लड़े, इसलिए वे अब हमारे ऊपर अत्याचार करने लगे हैं। जब सत्याग्रही लड़कर जीतता है तब उसकी जीतका परिणाम उसके लिए भी और दूसरोंके लिए भी अच्छा ही होता है। सत्याग्रही सत्यपर डटा रहेगा; वह कभी अत्याचारी बन ही नहीं सकता।