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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ग्यारह बजेके बाद डिपुटी गवर्नर आया। उसके सामने मैंने तीन माँगें रखी--किताबोंकी, अपनी स्त्रीकी बीमारीके कारण उसके पास पत्र लिखनेकी अनुमति देनेकी और बैठनेके लिए एक बेंचकी। पहली माँगके बारेमें जवाब मिला, “विचार करेंगे", दूसरीके बारेमें कहा “पत्र लिख सकते हो", और तीसरीका उत्तर "नहीं" में मिला। लेकिन जब मैंने गुजरातीमें पत्र लिखकर दिया, तो उसपर यह टिप्पणी लिखी गई कि मुझे पत्र अंग्रेजीमें लिखना चाहिए। मैंने कहा कि मेरी स्त्री अंग्रेजी नहीं जानती है; मेरे पत्र उसके लिए दवा-जैसे सिद्ध होंगे; उनमें कुछ नया या विशेष नहीं लिखा जाता। फिर भी मुझे अनुमति नहीं मिली। अंग्रेजीमें लिखनेकी अनुमतिका लाभ उठानेसे मैंने इनकार कर दिया। मेरी किताबें मुझे उसी दिन शामको दे दी गई।

दोपहरका खाना आया, वह भी बन्द दरवाजेवाली उसी कोठरीमें खड़े-खड़े खाना पड़ा। तीन बजेके करीब मैने नहानेकी अनुमति माँगी। नहानेकी जगह मेरी कोठरीसे सवा सौ फुट दूर रही होगी। सन्तरी बोला,"ठीक है, तो कपडे उतारकर (नंगे होकर) ज कहा, "ऐसा करना जरूरी है क्या? मैं अपने कपड़े पर्देपर टाँग दूंगा।" उसने वैसा करनेकी इजाजत दे दी। पर साथ ही यह भी कहा कि ज्यादा समय मत लगाना। अभी मेरा शरीर पोंछना बाकी ही था कि भाई साहब चिल्ला पड़े, “गांधी, तैयार हो गये या नहीं?" मैंने कहा, "अभी तैयार होता हूँ।" किसी भारतीयका मह भी मुश्किलसे देखनेको मिलता था। शाम हुई तो कम्बल और नारियलके रेशोंसे बनी हुई चटाई सोनेके लिए मिली। सिरहाने कया या पटिया नहीं था। पाखाने जाता तब भी एक सन्तरी पहरा देता हुआ खड़ा रहता था। और यदि वह मझे जानता न होता तो चिल्लाता “साम', अब निकलो।" यहाँ "साम" को तो पाखाने में परा समय लेनेकी बरी आदत थी, इसलिए "साम" पुकारते ही कैसे उठ सकता था? और उठ जाता तो उसकी हाजत कैसे पूरी होती? इसी तरह कभी सन्तरी और कभी काफिर कैदी या तो उझक-उझककर पाखानेके भीतर झाँकते या "उठ", "उठ" की रट लगा देते थे।

मुझे काम दूसरे दिन मिला। वह फर्श और दरवाजे साफ करनेका था। साफ करनेका मतलब था, उन्हें अच्छी तरह चमकाना । दरवाजे लोहेके थे, जिनपर रोगन लगा हुआ था। उन्हें हमेशा पालिश करनेसे उनपर क्या असर पड़ता? मैंने एक-एक दरवाजा घिसनेमें तीनतीन घंटे लगाये। लेकिन उनमें कोई फर्क मैंने तो नहीं देखा। फर्श में जरूर कुछ फर्क पड़ता था। मेरे साथ दूसरे कुछ काफिर कैदी काम करते थे। वे अपनी सजाकी कहानी टूटी-फूटी अंग्रेजीमें सुनाते थे और मेरी सजाके बारेमें पूछते थे। कोई पूछता कि क्या तुमने चोरी की है तो कोई पूछता, क्या तुम शराब बेचते पकड़े गये। जब मैंने थोड़े समझदार काफिरको अपनी बात समझाई, तो वह बोला, "क्वाइट राइट" ("ठीक किया"); "अमलंग बैड" ("गोरे खराब हैं"); "डोन्ट पे फाइन" ("जुर्माना मत देना")। मेरी कोठरीपर लिखा था “आइसोलेटेड" ("तनहाई ")। मेरी कोठरीके पास दूसरी पाँच कोठरियां भी वैसी ही थीं। मेरा पड़ोसी एक काफिर था, जो खूनका प्रयत्न करनेके अपराधमें सजा भोग रहा था। इसके बाद जो तीन कैदी थे. उनपर समाजके व्यवहारके विरुद्ध व्यभिचारका अभियोग था। संगतिमें और ऐसी स्थितिमें मैंने प्रिटोरियाकी जेलका अनुभव शुरू किया।

साम-सामी । दक्षिण आफ्रिकामें गोरे लोग हिन्दुस्तानियोंको तिरस्कारसे “ सामी" कहते थे ।