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मेरा जेलका तीसरा अनुभव [२]


फ्रांसीसी क्रान्तिपर लिखी हुई कार्लाइलकी रचना बहुत प्रभावोत्पादक है। उसे पढ़कर मुझे विश्वास हो गया कि हिन्दुस्तानकी दुरवस्था दूर करनेका उपाय हमें गोरी जातियोंसे नहीं मिलेगा। मेरी मान्यता है कि फ्रांसीसी जनताको क्रान्तिसे खास लाभ नहीं हुआ। मैज़िनीका भी यही खयाल था। इस बारेमें बहुत मतभेद है। लेकिन उसपर यहाँ विचार करना उपयुक्त नहीं होगा। उस क्रान्तिके इतिहास में भी कुछ सत्याग्रहियोंके उदाहरण देखने में आते हैं।

गुजराती, हिन्दी और संस्कृत पुस्तकोंमें मैंने स्वामीजीकी ओरसे भेजी गई पुस्तक 'वेद-शब्द-संज्ञा', केशवराम भट्टके भेजे हुए उपनिषद्, श्री मोतीलाल दीवानकी भेजी हुई 'मनुस्मृति', फीनिक्समें छपी हुई 'रामायण', 'पातंजल योगदर्शन', नथूरामजीकी लिखी हुई 'आह्निक प्रकाश' प्रोफेसर परमानन्दकी दी हुई 'संध्यानी गुटिका,'[१] और 'गीता' तथा स्वर्गीय कविश्री रायचन्दकी रचनाएँ पढ़ीं। इन पुस्तकोंको पढ़नेसे मुझे विचार करनेके लिए बहुत-कुछ मिला। उपनिषदोंके वाचनसे मुझे बहुत शान्ति मिली। एक वाक्य तो मेरे मनपर अंकित हो गया है। उसका सार यह है कि तू जो भी कर, वह आत्माके कल्याणके लिए ही कर। यह बात जिन शब्दोंमें[२] कही गई है वे बहुत ही सुन्दर हैं। उनमें और भी बहुत-सी बातें विचारणीय हैं।

परन्तु सबसे ज्यादा सन्तोष मुझे कविश्री रायचन्दकी रचनाओंसे मिला। उनकी रचनाएँ मेरी रायमें तो ऐसी हैं, जो सबको मान्य हो सकती हैं। उनकी जीवन-चर्या टॉल्स्टॉयकी ही तरह उच्च कोटिकी थी। उनकी रचनाओं में से और संध्याकी पुस्तकमें से कुछ हिस्सा मैंने कंठस्थ कर लिया था। रातको मैं जब भी जगता, उसे दोहराता था और सुबहका आधा घंटा हमेशा उन्हीं विचारोंके मननमें बिताता था। जो हिस्सा याद था, उसमेंसे अधिकांश मैं मुँहसे बोल जाता और इससे मन रातदिन आनन्दमग्न रहता था। किसी समय निराशा आ घेरती, तो अपनी पढ़ी हुई बातोंका विचार करते ही मन तुरन्त प्रसन्न हो जाता और मैं ईश्वरका उपकार मानता। इस सम्बन्धमें भी अनेक विचार पाठकोंके आगे रखने लायक हैं। लेकिन यहाँ उसका प्रसंग नहीं है। सिर्फ इतना ही कहूँगा कि इस युगमें अच्छी पुस्तकें कुछ हद तक सत्संगकी कमी पूरी करती हैं। इसलिए जो भारतीय जेलमें सुख भोगनेकी इच्छा रखते हों, उन्हें अच्छी पुस्तकें पढ़नेकी आदत डालनी चाहिए।

तमिलका अभ्यास

इस लड़ाई में तमिल भाइयोंने जितना किया, उतना दूसरे भारतीयोंने नहीं किया। इसलिए विचार आया कि किसी और कारणसे नहीं तो अपने मनमें उनका आभार माननेके लिए ही मुझे तमिल भाषा ध्यानसे पढ़नी चाहिए। अतः, बादका एक महीना मैंने तमिलका अभ्यास करनेमें ही बिताया। मैं ज्यों-ज्यों तमिल पढ़ता जाता हूँ, त्यों-त्यों उस भाषाकी ज्यादा खूबियाँ देखाई देती हैं। वह बहुत सुन्दर और मधुर भाषा है और उसकी रचनासे तथा जो-कुछ मैंने पढ़ा उससे ऐसा मालूम होता है कि तमिल लोगोंमें अनेक होशियार, विचारवान और सयाने पुरुष हो गये हैं और हो रहे हैं। इसके सिवा, यदि भारतको एक होना है, तो मद्रास प्रान्तके बाहरके कुछ भारतीयोंको भी तमिल भाषा जाननी चाहिए।

  1. संध्याकी गुटिका ।
  2. गांधीजीका संकेत सम्भवत: याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी सम्वादमें आत्मा-सम्बन्धी पंक्तियोंकी ओर है: आत्मा वा अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः...'। देखिए बृहदारण्यकोनिषद्, ब्राह्मण ५।
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