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भाषण: जमिंस्टनमें

अनाक्रामक प्रतिरोध गलत नामकरण है। किन्तु इस नामको इसलिए स्वीकार कर लिया गया है कि यह काफी लोक-प्रिय है, और जिन लोगोंने इस शब्द-समुच्चय द्वारा व्यक्त विचारको कार्यरूप दिया है वे बहुत समयसे इसका प्रयोग करते आये हैं। किन्तु उक्त विचार "आत्मबल" शब्द द्वारा अधिक पूर्णतासे और अधिक अच्छी तरह व्यक्त होता है। इस प्रकार यह उतना ही पुराना है जितना पुराना इन्सान। आक्रामक प्रतिरोध "शरीर-बल" शब्दसे अधिक अच्छी तरह व्यक्त होता है। ईसा मसीह, डैनियल और सुकरातने अनाक्रामक प्रतिरोध या आत्मबलको शुद्धतम रूपमें प्रदर्शित किया था। ये सभी गुरु अपनी आत्माकी तुलनामें अपने शरीरको तुच्छ समझते थे। टॉल्स्टॉय इस सिद्धान्तके सबसे श्रेष्ठ और प्रसिद्ध व्याख्याकार थे। उन्होंने न केवल इसकी व्याख्या की, बल्कि तदनुसार अपना जीवन भी ढाला था। यह सिद्धान्त यूरोपमें प्रचलित होनेसे कहीं पहले भारतमें जान लिया गया था और अकसर व्यवहारमें लाया जाता था। यह आसानीसे समझा जा सकता है कि आत्मबल शरीरबलसे बहुत ही ऊँचा है। यदि लोग अन्यायके प्रतिकारके लिए आत्मबलका सहारा लें तो वर्तमान कष्टोंसे एक बड़ी हद तक बचा जा सकता है। कुछ भी हो, इसके प्रयोगसे दूसरोंको कभी कष्ट नहीं पहुँचता। इसलिए जब-कभी इसका गलत उपयोग किया जाता है, तब इससे उपयोग करने वालेको ही कष्ट होता है, न कि उन लोगोंको जिनके विरुद्ध इसका उपयोग किया जाता है। सद्गुणके समान यह अपना पुरस्कार आप ही है। इस प्रकारके बलके उपयोगमें असफलता-जैसी कोई वस्तु होती ही नहीं। "बुराईका प्रतिरोध न करो" का अर्थ है, बुराईको बुराईसे नहीं, बल्कि भलाईसे दूर करो। दूसरे शब्दोंमें, शरीरबलका शरीरबलसे नहीं, बल्कि आत्मबलसे प्रतिरोध करो। इसी विचारको भारतीय दर्शनमें 'अहिंसा' शब्दसे व्यक्त किया गया है। इस सिद्धान्तको कार्यरूप देनेका अर्थ है उन लोगों द्वारा शारीरिक कष्ट उठाना जो इसका अनुसरण करते हैं। किन्तु यह बात सब जानते हैं कि संसारमें इस प्रकारका कष्ट कुल मिलाकर कम नहीं, बहुत ज्यादा है। ऐसा होनेपर उन लोगोंके लिए, जो आत्मबलकी अतुल शक्तिको पहचानते हैं, इतना ही आवश्यक है कि वे सजग होकर और समझ-बूझकर शारीरिक कष्टको अपना प्रारब्ध समझें। जब कष्ट उठानेवाले ऐसा समझ लेते हैं तब उनके लिए यही कष्ट आनन्दका स्रोत बन जाता है। यह बिल्कुल साफ है कि अनाक्रामक प्रतिरोधको इस प्रकार समझ लें तो वह शरीरबलसे बेहद ऊँचा हो जाता है; और इसमें शरीरबलसे अधिक साहसकी भी जरूरत होती है। इस कारण अनाक्रामक प्रतिरोधसे आक्रामक प्रतिरोध अथवा शारीरिक प्रतिरोधपर जाना सम्भव नहीं है। इसलिए उपनिवेशीय देखेंगे कि भारतीयों द्वारा अपनी शिकायतोंको दूर कराने के लिए इस शक्तिका उपयोग किया जानेपर आपत्ति नहीं की जा सकती। यदि वतनी भी इस हथियारका उपयोग करें तो इससे जरा भी हानि नहीं हो सकती। उलटे, यदि वतनी इतने ऊँचे उठ सकें कि वे इस शक्तिको समझें और इसका उपयोग करें तो सम्भवतः कोई भी वतनी प्रश्न हल हुए बिना नहीं रहेगा। इस शक्तिके सफल प्रयोगके लिए एक शर्त है, शरीरसे भिन्न आत्माकी सत्ता और उसकी नित्यता स्वीकार करना, तथा श्रेष्ठताको मानना। यह स्वीकृति जीवन्त विश्वासके रूपमें होनी चाहिए, न कि केवल