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भेंट: 'केप टाइम्स' को


[संवाददाता:] वतनी और रंगदार शिष्टमण्डल भी इंग्लैंड जा रहे हैं; क्या आप किसी रूपमें उनके साथ मिल-जुलकर भी काम करेंगे?

[गांधीजी:] यह सब अवसरपर निर्भर है और इस सम्बन्धमें लन्दनमें हम स्वभावतः बहुत हद तक लॉर्ड एम्टहिलकी[१] समितिसे सलाह लेंगे ।

संघ अधिनियम (यूनियन ऐक्ट) के विरुद्ध आपको मुख्य आपत्ति क्या है?

अगर दक्षिण आफ्रिकाके अधिवासी ब्रिटिश भारतीय प्रजाजनोंकी पूर्ण स्वतन्त्रता सुनिश्चित कर दी जाती है तो व्यक्तिशः मुझे संविधानमें कोई दोष दिखाई नहीं देता। मेरी राय यह है कि संघको केवल गोरे ब्रिटिश प्रजाजनोंका संघ नहीं होना चाहिए, बल्कि यहाँके सभी अधिवासी ब्रिटिश प्रजाजनोंका संघ होना चाहिए। ब्रिटिश भारतीयोंको बहुत भय है कि संविधानके अन्तर्गत यह संघ ब्रिटिश भारतीयों और रंगदार प्रजातियोंके विरुद्ध गोरी प्रजातियोंका संघ होगा[२] और यदि ऐसा हुआ तो मेरा खयाल है कि यह हर तरहसे बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी। ऐसे किसी साम्राज्यीय संकटके विरुद्ध रक्षाका उपाय करनेमें कोई कसर न रखना ब्रिटिश भारतीय शिष्टमण्डलका कर्तव्य होगा।

ट्रान्सवालके मताधिकार प्रतिबन्धके सम्बन्धमें आपके क्या विचार हैं?

मैं तो मताधिकारके मामलेपर ज्यादा जोर नहीं देता। बात यह है कि आज ऐसी स्थिति उत्पन्न हो रही है जो निःसन्देह आफ्रिकाकी रंगदार प्रजातियोंके विरुद्ध है; मैं उसीके बारेमें सोच रहा हूँ। इस सम्बन्धमें जो कुछ कहा गया है, मैंने उस सबका अध्ययन किया है; मैंने संसदीय वाद-विवादोंपर भी विचार किया है। इन सबसे निःसन्देह यह प्रकट होता है कि अगर साम्राज्य सरकारने इन मामलोंके सम्बन्धमें सब तरहसे आश्वासन प्राप्त न किया तो शायद संघकी रंगदार जातियाँ, मुख्यतः एशियाई जातियाँ, बर्बाद हो जायेंगी।

संघके अन्तर्गत उनकी अवस्था किस तरह खराब होगी ?

यह बात बिलकुल साफ है कि संघ-संसदकी आवाज समस्त दक्षिण आफ्रिकाकी आवाज होगी और साम्राज्य सरकार संघ-संसद द्वारा स्वीकृत किसी भी कानूनपर आपत्ति करनेमें

  1. आर्थर ऑलिवर विलियर्स रसेल, एस्टहिलके सेकेंड बैरन (१८६९-१९३६); मद्रासके गवर्नर, १८९९-१९०६; सन् १९०४ में भारतके कार्यवाहक वाइसराय और गवर्नर जनरल; दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय संघर्ष में सक्रिय रूपसे भाग लेते थे और दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय समितिके अध्यक्ष भी थे। उन्होंने ढोक-कृत गांधीजीकी जीवनी की प्रस्तावना लिखी थी ।
  2. भेंटके इस मुद्देका उल्लेख करते हुए ३-७-१९०९ के इंडियन ओपिनियनकी एक सम्पादकीय टिप्पणी में कहा गया था: "संघ संविधानके मसविदेमें जातीय प्रतिबन्ध मौजूद है। भारतीयोंके आवागमनसे सम्बन्धित वर्तमान कानून ज्योंका-त्यों कायम रखा गया है और वह उसी रूपमें तबतक रहेगा जबतक संघ-संसद उसमें दखल देकर कोई परिवर्तन—चाहे वह अच्छेके लिए हो या बुरेके लिए—करना नहीं चाहे। रुझान किस ओर होगा, इस सम्बन्ध में हमें कोई सन्देह नहीं है। दक्षिण आफ्रिकामें पिछले दस वर्षोंकी चेतावनी व्यर्थ नहीं गई है। संघमें केपके अपेक्षाकृत उदारमना सदस्य ट्रान्सवाल, ऑरेंजिया और नेटालके भारतीय-विरोधी सदस्यों के बड़े दलसे दब जायेंगे। निःसन्देह अस्वाभाविक जातीय पृथक्करणकी भावना वातावरण में मौजूद है और भारतीयों द्वारा ज्यादातर दक्षिण आफ्रिकी सरकारोंके विरोधकी जड़में यह पक्का विश्वास है कि देर-सवेर अन्य एशियाइयोंके साथ-साथ ब्रिटिश भारतीयों के विरुद्ध भी उस नीतिको अमलमें लाया जायेगा, जिसके अनुसार कुछ जातिके लोगोंका आवास पृथक बस्तियों या बाजारोंमें सीमित कर दिया जाता था।"