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१७२. पत्र: रामदास गांधीको

[आर॰ एम॰ एस॰ 'केनिलवर्थ कैंसिल']
जुलाई ७, १९०९

चि॰ रामदास

मैं इस समय जहाजमें हूँ।

बापूके आशीर्वाद

रामदास गांधी


'इंडियन ओपिनियन'


फीनिक्स, नेटाल

जहाजकी तस्वीरवाले पोस्टकार्डपर गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती (सी॰ डब्ल्यू॰ ८४) से।

सौजन्य: सुशीलाबेन गांधी

१७३. शिष्टमण्डलकी यात्रा [–२]

[जुलाई ९, १९०९ के पूर्व]

जहाज और जेलका मुकाबला

मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि पहले दर्जेकी जहाजकी यात्राकी अपेक्षा कैद बहुत अच्छी है। श्री भीखूभाई दयालजी मलिया तीसरे दर्जेमें हैं। उनसे मिलनेके लिए हम दोनों भाई हर रोज जाते हैं। इससे हमें तीसरे दर्जेका अनुभव मिला है। मेरी मान्यता ऐसी है कि तीसरे दर्जेमें जो सुख है—स्वतन्त्रता है—वह पहले दर्जेमें नहीं है। और जेलमें जो सुख और स्वतन्त्रता है वह तीसरे दर्जेमें [ भी ] नहीं है । जहाजमें जो सुख— यदि मानें तो—नौकरोंको है वह यात्रियोंको नहीं है। नौकर बालकोंकी तरह पहले दर्जेके यात्रियोंको बहलाते-फुसलाते रहते हैं। हर दो घंटे बाद कुछ-न-कुछ खाना-पीना होता रहता है। एक गिलास पानी भी अपने हाथसे नहीं लिया जा सकता। खानेकी मेजपर बैठे हों, तो कुछ दूर पड़ा चम्मच उठाना बड़प्पनमें बाधक माना जाता है। साफ रखनेके लिए हाथ तमाम दिन धोने पड़ते हैं। हाथोंके लिए कुछ काम तो रहा नहीं, इसलिए वे बिल्कुल नाजुक और कमजोर हो जाते हैं। मैं जब अपने मौजूदा हाथोंका मुकाबला अपने जेलके हाथोंसे करने लगता हूँ तो मेरे मनमें चिढ़ पैदा होती है। नौकरोंको काम करते देखता हूँ तो मुझे उनसे ईर्ष्या होती है। मैं जिस शान्तिका उपभोग जेलमें करता था वह यहाँ नहीं है। जो स्वतन्त्रता जेलमें थी, वह भी नहीं है। यहाँ तो हर तरह संकोचमें रहना पड़ता है। मैं जेलमें जितनी गम्भीरता, धीरता और एकाग्रतासे ईश्वर-भजन करता था, उतनी गम्भीरता, धीरता और एकाग्रता यहाँ ईश्वर-भजनमें नहीं रहती।