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शिष्टमण्डलकी यात्रा [२]


दिन प्राय: पढ़नेमें जाता है। इंग्लैंडमें जो विवरण[१] पेश करना है, वह लिखा जा चुका है। उसको श्री हाजी हबीबने पसन्द किया है। उन्होंने कुछ सुझाव दिये हैं; वे मैंने उसमें शामिल कर लिये हैं।

श्री मेरीमैनसे भेंट

जहाजमें कुछ प्रमुख यूरोपीय लोग हैं। उनमें कईसे भेंट हो चुकी है। ऐसे लोगोंमें श्री मेरीमैन आ जाते हैं। उनके साथ बहुत बातचीत हुई। उनके विचारोंसे मुझे लगता है कि संघके सम्बन्धमें जो-कुछ जोर लगाया जायेगा वह निष्फल जायेगा। जब मैंने उनको यह बताया कि ट्रान्सवालके सवालका संघसे बहुत सम्बन्ध नहीं है तो श्री मेरीमैन और भी गहराईमें उतरे और उन्होंने इस प्रश्नके सम्बन्ध में पूरी सहायता देनेका वचन दिया। सत्याग्रही कैदियोंके प्रति उनके मनमें मैंने बहुत सहानुभूति देखी। श्री जैगरसे भी भेंट हुई। उनका विचार भी श्री मेरीमैनसे मिलता-जुलता दिखाई दिया। संघ तो बनना ही है, किन्तु यदि उसमें रुकावट डाले बिना ट्रान्सवालका प्रश्न हल हो सके तो ये महानुभाव भी सहायता देनेके लिए तैयार हैं। जब मैंने उनसे श्री काछलिया और श्री अस्वातके त्यागकी चर्चा की तो वे बड़े उत्साहित हुए और उन्होंने जो कुछ कहा उसका भावार्थं यह था कि यदि दूसरे भारतीय व्यापारियोंने ऐसा ही किया होता तो आज झगड़ा तय हो गया होता। मैंने जब उनको यह बताया कि उनकी ही पेढ़ीने श्री काछलियाका विरोध किया था तब उन्होंने इसपर दुःख और आश्चर्य प्रकट किया।

मैंने श्री दाउद मुहम्मद और श्री पारसी रुस्तमजीकी बात उक्त दोनों सज्जनोंको बताई तो वे बहुत प्रभावित हुए जान पड़े। उनको दुःख हुआ और उन्होंने यह आशा प्रकट की कि जैसे भी हो, समझौता हो जायेगा। हमने उनको अपनी माँगें बताई तो उन्होंने मंजूर किया कि वे बहुत वाजिब हैं।

मैंने श्री जैगरसे केपके प्रवासी-अधिनियम (इमिग्रेशन ऐक्ट) के सम्बन्धमें बातचीत की। उनको यह जानकर आश्चर्य हुआ कि केपके भारतीयोंको केपसे बाहर जानेके लिए मीयादी अनुमतिपत्र (परमिट) लेने पड़ते हैं। यदि केपके भारतीयोंने पूरा प्रयत्न किया होता तो ऐसी धारा कानूनमें कभी न रही होती। किन्तु अब भी उनका कर्तव्य है कि वे इस सम्बन्धमें कोई उपाय करें। मुझे विश्वास है कि केपके बहुत से सदस्योंको इस बेढंगी धाराकी कोई जानकारी नहीं है।

श्री सॉवरसे भी, जो केपके मन्त्रिमण्डलके एक सदस्य हैं, भेंट हुई है। उन्होंने बहुत सहानुभूति प्रकट की है और यथासम्भव सहायता देनेका वचन दिया है। श्री साँवरने स्वीकार किया कि जो जाति हमारी तरह दुःख उठाती है उसकी माँगोंका अनुचित होना सम्भव नहीं है। उस जातिकी सहायता करना उदार मनके प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है। मैं इसको भी सत्याग्रहका ही एक प्रभाव मानता हूँ। हम जेल न गये होते तो ऐसे लोग कुछ सुनते भी नहीं। इसके अतिरिक्त एक अन्य यूरोपीय हैं, जिनके साथ बहुत बार बातचीत हुई है। वे खुद अनाक्रामक प्रतिरोधी (पैसिव रेजिस्टर) हैं। वे एक संस्थाके मन्त्री हैं। उनका कहना है कि अंग्रेज अनाक्रामक प्रतिरोधियोंकी अपेक्षा हम कष्ट सहनेमें बहुत आगे बढ़ गये हैं। उन्होंने एक सिफारिशी चिट्ठी देने और दूसरे प्रकारसे भी सहायता करनेका वचन दिया है।

  1. देखिए "ट्रान्सवालवासी भारतीयोंके मामलेका विवरण", पृष्ठ २८७-३००।