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सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय


पहली आहुति

दक्षिण आफ्रिकामें हुई सभाओंकी बहुत-सी खबरें यहां आई हैं। वे सन्तोषजनक हैं। नेटालसे एक भी खबर नहीं है। श्री नागप्पनके[१] बलिदानसे श्री हाजी हबीबको और मुझे बहुत शोक हुआ है। यह समय हमारे लिए शोकका तो था ही; उस शोकमें वृद्धि हुई है। फिर भी समाजके दृष्टिकोणसे विचार करें तो दुःखी होनेका कोई कारण नहीं है। यह ज्ञान हमें सदा रहा है कि इस लड़ाईमें हमें प्राणों तक की आहुति देनी पड़ सकती है और यदि ऐसा हो तो हमें वह आहुति खुशी-खुशी देनी है। हमें इस लड़ाईमें यही सीखना है कि समाजके हितके लिए हमें सभी तरहके दुःख उठाने हैं और ऐसा करना ही हमारे दुःखोंका इलाज है। मुझे यहाँ धीरे-धीरे, अनुभव के साथ यह समझ में आता जा रहा है कि हमने जो शिष्टमण्डल भेजा है वह हमारी कमजोरी है। जितनी मेहनत लोगोंसे मिलने तथा उन्हें मनानेमें लगती है और उसमें जो वक्त जाता है, यदि केवल स्वयं कष्ट उठानेमें उतनी मेहनत की जाये और उतना वक्त लगाया जाये तो यह संघर्ष तुरन्त समाप्त हो जाये। मैं परिणाम नहीं जानता। किन्तु इस लड़ाईसे हम ऊपर कहे अनुसार सीख लें तो काफी है।

खबर मिली है कि श्री दाउद मुहम्मद बीमारीके कारण जेलसे छोड़ दिये गये हैं। उनके लिए मुझे दुःख होता है। लेकिन कौमकी खातिर मैं श्री दाउद मुहम्मदको बधाई देता हूँ। हम अति-भोजन, विषय-भोग और स्वार्थ-श्रमके कारण बहुत बार बीमार हो जाते हैं। इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। फिर उस बीमारीके लिए दोषी भी हम खुद ही होते हैं। तब समाजके काममें कोई बीमार हो तो उसको तो निःसन्देह बधाई देना उचित है। ऐसा हमेशा होता आया है और होता रहेगा। जैसा श्री दाउद मुहम्मद कर रहे हैं वैसा ही उनके बेटे श्री हुसेन मियाँ यहाँ कर रहे हैं। उनका स्वभाव देखकर सन्तोष होता है। समाजके प्रति उनकी सहानुभूति बहुत अच्छी है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-८-१९०९

१७८. पत्र: एच॰ एस॰ एल॰ पोलकको

वेस्टमिन्स्टर पैलेस होटल
४, विक्टोरिया स्ट्रीट
लन्दन, एस॰ डब्ल्यू॰
जुलाई १४, १९०९

प्रिय हेनरी,

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा और अच्छा लगेगा कि मॉड मेरी सहायता कर रही है और यह पत्र उसीसे लिखाया जा रहा है। वह इधर पिछले कुछ दिनोंसे बेकार है; और आप आसानीसे सोच सकते हैं कि जब पिताजीने[२] मुझसे कहा कि मैं उससे सहायता ले

  1. तात्पर्य एक युवक सत्याग्रहीसे है, जिसकी जेल शिविरमें अधिकारियोंके दुर्व्यवहार और शीतके कारण मृत्यु हो गई थी; देखिए "ट्रान्सवालवासी भारतीयोंके मामलेका विवरण", पृष्ठ २९८ ।
  2. श्री पोलकके पिता।