प्रत्येक एशियाईको ३ पौंड कर देना और उसकी रसीद लेना आवश्यक होता है, एशियाई लोग बस्तियोंके सिवा सर्वत्र भू-स्वामित्वके अधिकारसे वंचित हो जाते हैं, उनका निवास ऐसी बस्तियों में सीमित हो जाता है, और वे नागरिक बननेके अधिकारी नहीं रहते), जिसे साम्राज्य सरकारने गलतफहमीके कारण और उस वक्त, मंजूर कर लिया था जब वहाँ केवल तीसके लगभग भारतीय निवासी थे, विगत बोअर सरकार द्वारा कभी पूरी तरह लागू नहीं किया गया था। भारतीय व्यापारियोंके व्यापारमें कभी हस्तक्षेप नहीं किया गया था और बस्ती सम्बन्धी नियम कभी अमलमें नहीं लाये गये थे। बस्तियोंमें जानेके लिए निकाली गई सूचनाओंकी ब्रिटिश प्रतिनिधिकी सलाहसे उपेक्षा या अवज्ञा की जाती थी और उसीकी सलाहसे भारतीय व्यापारी परवानों (लाइसेन्सों) के बिना व्यापार करते थे। ऐसा करनेपर वे गिरफ्तार भी किये जाते थे, किन्तु ब्रिटिश प्रतिनिधिके हस्तक्षेप करनेपर बरी कर दिये जाते थे। भारतीयोंका प्रवेश बेरोक-टोक होता था। हाँ, उन भारतीयोंको, जो व्यापारके लिए राज्य में बस गये थे, एक बार ३ पौंड कर देना पड़ता था, और इस प्रकार अपने नाम दर्ज कराने पड़ते थे। इसका मंशा शिनाख्ती कार्रवाई करना हगिज नहीं था।
१६. ब्रिटिश कब्जा होनेके बाद यह सब बदल दिया गया। १९०२ में शान्ति-रक्षा अध्यादेश (पीस प्रिज़र्वेशन ऑर्डिनेन्स) नामका एक कानून उपनिवेशकी शान्ति और सुव्यवस्थाके लिए खतरनाक लोगोंका प्रवेश रोकनेके उद्देश्यसे पास किया गया। इस अध्यादेशमें यूरोपीय और एशियाईका कोई भेद न था। यह सभीपर लागू था। किन्तु व्यवहारमें यह भारतीय प्रवासी-प्रतिबन्धक कानून (इमिग्रेशन रिस्ट्रिक्शन ऐक्ट) के रूपमें काममें लाया जाता था। एक बार १८८५ के कानून ३ को कठोरतासे लागू करनेका प्रयत्न किया गया। जब लॉर्ड रॉबर्ट्ससे राहत देनेकी प्रार्थना की गई, तो उन्होंने कहा कि पूरी तरह असैनिक शासन स्थापित होनेके बाद भारतीयोंकी स्थिति सुधर जायेगी।[१] जब असैनिक शासन शुरू हुआ तब लॉर्ड मिलनरसे निवेदन किया गया।[२] स्थानीय सरकारने कई बार स्थितिमें सुधार करनेके प्रयत्न किये; किन्तु उन्हें सफल बनानेके लिए पर्याप्त दृढ़ताका अभाव था। उपनिवेशपर नये ब्रिटिश कब्जेसे कितने ही अब्रिटिश कानूनोंको—जिनमें उतने ही अब्रिटिश एशियाई-विरोधी कानून भी हैं—खत्म करनेका सुनहरा मौका मिला था, लेकिन उसकी उपेक्षा कर दी गई, या उसे निकल जाने दिया गया। उसके बाद सुधारके जो भी प्रयत्न किये गये, सब असफल होते गये और परिणामतः ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थिति अधिकाधिक बिगड़ती चली गई।
१७. लॉर्ड मिलनरने (१९०४ में) १८८५ के कानून ३ की एक धाराका उपयोग ("ब्रिटिश भारतीयोंकी सलाहसे") उपनिवेशके प्रत्येक एशियाईकी शिनाख्तके लिए किया और इस तरह कानूनके क्षेत्र और उद्देश्यमें परिवर्तन कर दिया। इस व्यवस्थाके अन्तर्गत और इस लिखित वादेके अनुसार कि यह शिनाख्त आखिरी होगी, उपनिवेशमें रहनेवाले लगभग प्रत्येक ब्रिटिश भारतीयने प्रमाणपत्र ले लिया, जिसमें उसका पूरा हुलिया और अँगूठेका निशान था। फिर भी उत्तरदायी शासन मिलनेसे ठीक पहले तत्कालीन उपनिवेश-सचिव श्री डंकनने (१९०६ में) एक विधेयक (बिल)[३] पेश किया, जिसमें लॉर्ड मिलनरके वादेकी उपेक्षा की