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ट्रान्सवालवासी भारतीयों के मामलेका विवरण
२४. जो तथ्य सिद्ध हो चुके हैं और मान लिये गये हैं, वे ये हैं :
(क) श्री गांधीने श्री स्मट्सको उनकी अनुमतिसे (२२ फरवरी, १९०८ को) एक विधेयकका मसविदा[१] भेजा था, जिसकी एक धारासे कानून रद होता था। इसकी प्राप्ति स्वीकार की गई थी और रद करनेके प्रस्तावका कभी खण्डन नहीं किया गया।
(ख) समझौता होनेके दो दिन बाद जनरल स्मट्सने एक सार्वजनिक सभामें (६ फरवरी १९०८ को) कहा था कि "मैंने उनसे कह दिया है कि जबतक देशमें एक भी एशियाई ऐसा है जिसका पंजीयन न हुआ हो, तबतक कानून वापस नहीं लिया जायेगा" और यह भी कि "जबतक देशका प्रत्येक भारतीय पंजीयन नहीं करा लेता तबतक कानून वापस नहीं लिया जायेगा"।
(ग) असलमें जनरल स्मट्सने (१३ जून, १९०८ को) प्रवासी कानूनमें संशोधनका एक मसविदा तैयार और प्रचारित भी किया था। उससे एशियाई-कानून रद तो होता था परन्तु उसमें उन्होंने नई शर्ते रख दी थीं। उनमें से एक यह थी कि ब्रिटिश भारतीय, चाहे उनका दर्जा कुछ भी हो, निषिद्ध प्रवासी समझे जायें। उन्होंने यह शर्त लगा दी कि इन नई धाराओंको भारतीय मंजूर कर लें, तभी एशियाई कानूनको रद करनेका संशोधन पास किया जायेगा। भारतीय नई शर्तोको मंजूर नहीं करना चाहते।

२५. संक्षेपमें, भारतीयोंने नई शर्तें नहीं मानीं, इसलिए कानून रद नहीं किया गया। ये नई शर्ते उनको मान्य नहीं थीं, क्योंकि पहली तीन शर्तोसे उन भारतीयोंका, जो इस समय ट्रान्सवालके अधिवासी हैं, उपनिवेशमें रहनेका अधिकार छिनता था; और चौथी शर्तसे, जैसा ऊपर कहा गया है, राष्ट्रीय अपमान होता था, क्योंकि उससे ब्रिटिश भारतीयोंका, चाहे वे कितने ही सुसंस्कृत क्यों न हों, प्रवेश प्रजातीय आधारपर निषिद्ध हो जाता था। इस प्रकार यह साफ है कि कानून रद नहीं किया गया, और इसमें भारतीयोंका कोई कसूर नहीं था। जनरल स्मट्सने समझौतेकी लिखित और स्पष्ट शर्तें भी तोड़ दीं, क्योंकि यद्यपि लिखित समझौतेके अनुसार (देखिए टिप्पणी 'ग') १९०७ का कानून २ स्पष्टतः उन लोगोंपर लागू नहीं किया जाना था, जिन्होंने स्वेच्छया अपनी शिनाख्त करा ली थी; और यद्यपि उनकी शिनाख्तको एक अलग अधिनियम द्वारा कानूनी रूप दे दिया जाना था, फिर भी ऐसे भारतीयोंको १९०७ के कानून २ के अन्तर्गत लानेके उद्देश्यसे (११ अगस्त, १९०८ को[२]) एक विधेयक प्रकाशित किया गया।[३]

२६. जनरल स्मट्स द्वारा समझौतेके इस दुहरे भंगके परिणामस्वरूप भारतीयोंने (१६ अगस्त, १९०८ को) एक सार्वजनिक सभा बुलाई। उसमें उन्होंने स्वेच्छया लिये गये २,५०० प्रमाणपत्र जलाये और इस प्रकार ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि उनपर मुकदमे चलाये जा सकें। इसके फलस्वरूप शासक-वर्ग, प्रगतिवादी नेताओं और श्री गांधी तथा श्री क्विन (चीनी नेता) का एक सम्मेलन (१८ अगस्त, १९०८ को[४]) हुआ। बहुत थोड़े समयकी सूचनाके कारण संघके अध्यक्ष श्री ईसप मियाँ इसमें शामिल नहीं हो सके।

  1. देखिए खण्ड ८, पृष्ठ १००-०१।
  2. मूलमें "७ अगस्त, १९०९" है।
  3. देखिए खण्ड ८, पृष्ठ ४४३-४५ और ४४८-४९। यह अनुच्छेद लॉर्ड ऍम्टहिल्के सुझावके अनुसार फिर लिखा गया था; देखिए परिशिष्ट १४।
  4. मूलमें "१९०९" दिया गया है, जो छपाईकी है। देखिए खण्ड ८, १४ ४५५।