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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इनके अतिरिक्त दूसरे लोगोंसे भी मुलाकात हुई है; किन्तु वह महत्त्वहीन है, इसीलिए उसका हाल नहीं दे रहा हूँ।

हमने लॉर्ड ऍम्टहिलकी सलाहसे लॉर्ड क्रू और लॉर्ड मॉलेसे भेंटका समय माँगा है। लॉर्ड क्रू ने जवाब दिया है उसमें भेंटका कारण पूछा गया है। हमने उसका जवाब भेज दिया है।[१] वे मिलेंगे या नहीं, यह खबर अगले हफ्ते मालूम होगी।

मैं ज्यों-ज्यों अनुभव प्राप्त करता जाता हूँ त्यों-त्यों तथाकथित बड़े लोगोंसे और जो सचमुच बड़े हैं उनसे मिलकर ऊबता जाता हूँ। ऐसा लगता है कि इतनी मेहनत फिजूल की। सभी अपने-अपने विचारों में व्यस्त दिखाई देते हैं। सत्ताधारियोंके मनमें सच्चा न्याय करनेका विचार कम ही दिखाई देता है। उनको अपने पदको कायम रखनेकी चिन्ता लगी है। एक या दो लोगोंसे भेंट करने के प्रयत्नमें तमाम दिन चला जाता है। उन्हें पत्र लिखना होता है, उसका जवाब लेना होता है, उसकी पहुँच देनी होती है और तब उनके घर जाना होता है। एक उत्तरमें है तो दूसरा दक्षिण में। यह सब करनेके बाद भी कुछ मिलनेकी आशा कम होती है। न्यायकी दृष्टिसे मिलना होता तो कबका मिल जाता। बात केवल भयसे देनेकी रही है। ऐसी स्थितिमें काम करना सत्याग्रहीको अच्छा नहीं लगता।

इतनी मेहनत करने और इसमें बहुत-सा रुपया नष्ट करनेकी अपेक्षा ज्यादा कष्ट भोगना मैं बहुत हद तक अच्छा मानता हूँ। अड़चनें होनेपर भी माँग मंजूर हो जाये तो मैं समझँगा कि हमने राहत पानेके लिए जितना कष्ट सहन किया उसीसे यह मिला है। यदि हमारी माँग मंजूर न होती तो मैं समझँगा कि अभी अधिक कष्ट सहन करनेकी जरूरत है। कष्ट-सहन जैसा रसायन मुझे दूसरा दिखाई नहीं देता। किसी जबर्दस्त वक्ताकी आवाज भी कष्ट सहनकी पुकारकी बराबरी नहीं कर सकती। कष्ट सहनकी पुकारकी सुनवाई हुए बिना न रहेगी। जिन्हें कष्ट भोगना है उन्हें वह कहकर बताने की जरूरत नहीं है। मैं मानता हूँ कि दुःख तो अपने-आप बोलता है। और मैं प्रत्येक भारतीयको सलाह देता हूँ कि उसको दुःखसे नाता जोड़ना है। बाकी तो पानीका बुलबुला है। शिष्टमण्डलपर आशा कम लगानी चाहिए। यह बात याद कर लेनी चाहिए कि अपने बलके समान दूसरा कोई बल नहीं है; और जेल जानेको तैयार रहना चाहिए। जीत बस इसीमें मिलेगी।

दूसरे शहरोंसे जो तार मिले हैं वे उपनिवेश कार्यालय और भारत-कार्यालयको भेज दिये गये हैं।

कुसमय

सभी ऐसा मानते हैं कि शिष्टमण्डल कुसमयमें आया है। कुछ दिनोंमें लन्दनसे सब बड़े-बड़े लोग चले जायेंगे। वे अगस्त महीनेमें सैरके लिए निकल जाते हैं। इसलिए कोई सार्वजनिक काम करना हो तो उसको करना मुश्किल है। ऐसी विषम स्थिति होनेपर भी शिष्टमण्डल किसी दूसरे समयमें नहीं आ सकता था। जब दक्षिण आफ्रिकाके दूसरे लोग आये थे तभी हमारे आनेकी जरूरत थी। इसलिए नतीजा यह निकला कि यदि खानगी हलचलसे कुछ न बन पड़ा तो खुली हलचलका नतीजा बहुत ही कम निकलनेकी सम्भावना है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २१-८-१९०९
  1. देखिए पिछला शीर्षक।