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पत्र: लॉर्ड ऍम्टहिलको


भारतीयोंके लिए विचारणीय है कि जब इंग्लैंडकी अबलाओंको न्याय प्राप्त करनेमें इतनी देर होती है और ऐसा कष्ट सहना पड़ता है, तब हमको ट्रान्सवालमें समय लगे, कष्ट भोगना पड़े, प्राण तक देने पड़ें, जेलमें बीमारी झेलनी पड़े और भूखा रहना पड़े तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है? श्रीमती लॉरेंस, जिन्होंने इस लड़ाईमें बहुत धन दिया है और जो जेल हो आई हैं, कहती हैं कि "जबतक कुछ लोग सुधार करने या मानव-जातिकी भलाई करनेके लिए अपने लोहूमें सने मसालेसे चुनाई न करें तबतक सुधारोंके भवनका निर्माण होना सम्भव नहीं है।"

इन शब्दोंपर प्रत्येक भारत-हितैषीको विचार करना चाहिए। हम स्वतन्त्रता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें दूसरोंको मारकर या दुःख देकर (अर्थात् शरीर-बलसे) नहीं, बल्कि स्वयं मरकर या दुःख सहकर (अर्थात् आत्मबलसे) स्वतन्त्रता प्राप्त करनी चाहिए। ट्रान्सवालकी लड़ाई आत्म-सम्मानकी रक्षाकी अर्थात् स्वतन्त्रता प्राप्त करनेकी लड़ाई है। उस स्वतन्त्रताको प्राप्त करनेमें मृत्यु आ जाये तो वह जीवित रहनेके बराबर है। उसको न प्राप्त करके हम जीवित रहें तो यह मरणके समान है। महिला-मताधिकारके लिए लड़नेवाली इन स्त्रियोंसे हमें बहुत कुछ सीखना है। उनमें कुछ कमियाँ भी दिखाई देती हैं, जिनके सम्बन्धमें अभी यहाँ विचार करना आवश्यक नहीं है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-८-१९०९

१९७. पत्र: लॉर्ड ऍम्टहिलको

[लन्दन]
अगस्त ३, १९०९

लॉर्ड महोदय,

आपके २९ तारीखके पत्रके उत्तरमें मैंने एक तार[१] भेजा था। आशा है, वह आपको समयपर मिल गया होगा।

मैं यह पत्र इस सप्ताह के 'इंडियन ओपिनियन'[२] की ओर आपका ध्यान आकर्षित करनेके लिए लिख रहा हूँ। उसमें साम्राज्य-संसद के नाम नागप्पनकी मृत्युके सम्बन्धमें मद्रास अहातेसे आये हुए भारतीयोंका प्रार्थनापत्र और हलफनामे[३] प्रकाशित हुए हैं। आपको याद होगा, कुछ समय पूर्व इसी नागप्पनके बारेमें एक तार आया था।

आपका, आदि,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रतिकी फोटो-नकल (एस॰ एन॰ ४९७४) से।

  1. यह उपलब्ध नहीं है।
  2. जुलाई १०, १९०९ के अंक में।
  3. इसमें वीरा मुथु और ए॰ ए॰ मूडलेने उन हालतोंका और जेलके बेरहमी-भरे वरतावका उल्लेख किया है जिनके कारण सत्याग्रही सामी नागप्पनकी मृत्यु हो गई। देखिए "ट्रान्सवालवासी भारतीयोंके मामलेका विवरण", पृष्ठ २९८।