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१९८. पत्र: 'इंग्लिशमैन' को

लन्दन,
अगस्त ३, १९०९

सम्पादक


'इंग्लिशमैन'


[कलकत्ता]

आपके पत्र-लेखक 'साउथ आफ्रिकन' ने आपके गत २१ तारीखके अंकमें प्रकाशित अपने पत्रमें इतनी ग़लत बातें उसको अपना नाम भी छिपाना पड़ा। क्या मैं उसकी कुछ गलतबयानियाँ दुरुस्त कर सकता हूँ?

श्री एल॰ डब्ल्यू॰ रिच, यद्यपि वे मुझे अपना मित्र और साथी कहते हैं, भारतीय नहीं हैं, जैसा आपके पत्र-लेखकने मान लिया है। वे इंग्लैंडके यहूदी हैं और इस समय बैरिस्टरी कर रहे हैं।

भारतीयोंका पंजीयन (रजिस्ट्रेशन) एक शिनाख्ती कार्रवाई है और वह वर्गगत रूपमें भारतीयोंकी ईमानदारीपर सन्देहका सूचक है। काफिरोंके सम्बन्धमें पासकी प्रथा कुछ हद तक कर लगाने की कार्रवाई है और किसी भी प्रकार उस अर्थमें, जिसमें १९०७ का एशियाई पंजीयन कानून है, अपमानजनक नहीं है। एशियाई पंजीयन कानून (एशियाटिक रजिस्ट्रेशन ऐक्ट) और महाद्वीपकी पारपत्र (पासपोर्ट) प्रणालीमें उतना ही अन्तर है जितना खड़िया और पनीरमें होता है। महाद्वीपी पारपत्र (कॉन्टिनेन्टल पासपोर्ट) जिसके पास होता है उसकी रक्षा करता है, और यदि पासमें पारपत्र न हो तो इससे वह अपराधी नहीं माना जाता और उसे छ: मास तककी कड़ी कैद नहीं दी जा सकती, जबकि एशियाई कानूनके अन्तर्गत पंजीयनका प्रमाणपत्र होनेपर अबतक ट्रान्सवालमें २,५०० ब्रिटिश भारतीय भजे जा चुके हैं। ट्रान्सवालमें भारतीय कुली नहीं हैं।

आपके पत्र-लेखकके विरोधी कथनके बावजूद नेटाल उपनिवेशमें गिरमिटिया भारतीय मजदूरोंके प्रवेश-सम्बन्धी कानून बनानेमें वहाँके भारतीय व्यापारी-समाजका कोई हाथ नहीं था।

आपके पत्र-लेखकने यह मनगढन्त बात कही है कि नेटालमें प्रत्येक भारतीय १० शिलिंग माहवार खर्चपर निर्वाह करता है और सन्दूकोंके अस्तरकी पुरानी टीनके झोपड़े बनाकर रहता है। इसके विपरीत, डर्बन नगरपालिकाके मूल्यांकनके अनुसार सचाई यह है कि वहाँ भारतीयोंके पक्के मकान करीब-करीब दस लाख पौंडके हैं और इस तथ्यका उनके यूरोपीय व्यापारी प्रतिस्पर्धियोंने उनके विरुद्ध उपयोग किया है।

लेकिन भारतीय एक बातमें आपके पत्र-लेखकसे सहमत हो सकते हैं, और वह है नेटालमें या दक्षिण आफ्रिकाके किसी भी भागमें गिरमिटिया मजदूरोंके अस्तित्वकी निन्दा। ब्रिटिश भारतीय पिछले पन्द्रह सालसे इस प्रकारकी मजदूरीकी प्रथाको बन्द करानेके लिए आन्दोलन