इस दृष्टिसे किया गया है कि हमारे मामलेमें भारतीय लोकमतकी दिलचस्पी बढ़े और जनतामें सहानुभूति उत्पन्न हो। हमारा 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के सम्पादकसे निकट-सम्पर्क है और 'इंग्लिशमैन' के सम्पादक स्वर्गीय श्री सांडर्ससे[१] भी मेरा व्यक्तिगत सम्बन्ध था। मैं यह कह दूँ कि जब मैंने पहले-पहल दक्षिण आफ्रिकामें सार्वजनिक कार्य हाथमें लिया तब उन्होंने [श्री सांडर्सने] मुझे बहुत उपयोगी सहायता और सलाह दी थी। हमारी शिकायत सदा यह रही है कि भारतमें हमारे देशवासियोंने, जैसा शायद अभी कुछ पहले तक लगता था, इस प्रश्नके साम्राज्यीय महत्त्वकी करीब-करीब जान-बूझकर उपेक्षा की है। फिर जनरल स्मट्सने निर्दोष भारतीयोंको, जिनमें से अधिकतरके पास एक पैसा भी न था, पुर्तगाली प्रदेशके रास्ते ट्रान्सवालसे भारतको निर्वासित कर दिया। उनके इस आत्मघातकारी कार्यने इस सवालको सबसे ज्यादा प्रकाशमें ला दिया है। इससे इस प्रश्नका विज्ञापन इतना हो गया जितना शायद दूसरी किसी बातसे न हुआ होता। अब श्री हेनरी एस॰ एल॰ पोलक भारतीय जनताके सम्मुख इस स्थितिको रखनेके लिए ट्रान्सवालसे भारत गये हैं। वे वहाँसे यह निश्चित निर्देश लेकर गये हैं कि वे उग्रदलसे सम्पर्क न करें और ज्यादातर 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के सम्पादक, प्रोफेसर गोखले तथा आगाखाँकी सलाहसे चलें।
अनाक्रामक प्रतिरोधसे मेरा मतलब क्या है, यह साथकी कतरनसे[२] कुछ ज्यादा स्पष्ट रूपमें प्रकट हो जायेगा। इसमें जर्मिस्टनके साहित्य व वाद-विवाद संघ (जर्मिस्टन लिटरेरी ऐंड डिबेटिंग सोसायटी) में दिये मेरे भाषणका सार दिया गया है।[३] मैं कह दूँ कि जमिस्टन भारतीय विरोधी भावनासे ओतप्रोत है। फिर भी संघके सदस्योंने, जिनमें जर्मिस्टनके मेयर भी हैं, कृपा करके यह स्वीकार किया कि हम जो लड़ाई चला रहे हैं वह पूर्णतः निर्दोष है।
यदि मैं यह न कहूँ कि भारतमें जो-कुछ हो रहा है उसको मैं अत्यन्त गहरी दिलचस्पीसे और राष्ट्रीय आन्दोलनके कुछ पहलुओंको गम्भीरतम चिन्तासे देखता हूँ तो यह अनुचित होगा।...[४] सहानुभूति और...[५] उसमें लोगों और मेरे देशवासियों—दोनोंका और संसारका भी लाभ है। मेरा यह भी विश्वास है कि राष्ट्रीय भावनाके पूर्णतम विकासमें और भारतमें ब्रिटिश राज्यकी स्थिरतामें बिलकुल विरोध नहीं है। इसके अलावा मैं यह भी सोचता हूँ कि भारतमें हमें जो कष्ट हैं उनका इलाज भीतरी प्रयत्नोंसे सम्भव है। मैं यह जानता हूँ कि ब्रिटिश संविधानके अन्तर्गत ब्रिटिश प्रजाजनोंको, चाहे वे किसी जातिके हों, तबतक अपने अधिकार कभी नहीं मिले हैं और न कभी मिल सकते हैं जबतक वे उनसे सम्बन्धित अपने कर्तव्य पूरे न करें और जबतक वे उनके निमित्त लड़नेके लिए तैयार न हों। यह लड़ाई या तो शारीरिक हिंसाका रूप ले लेती है, जैसा भारतके उग्रदली लोगोंके मामलेमें है, या लड़नेवाले लोगोंके व्यक्तिगत कष्ट-सहनका रूप ले लेती है, जैसा ट्रान्सवालमें हमारे अनाक्रामक प्रतिरोधियोंके मामलेमें है। मेरी सम्मतिमें शिकायतें दूर करानेका पहला तरीका बहुत-कुछ बर्बरतापूर्ण है और भारतीयोंके स्वभावके विरुद्ध है—सो इसलिए नहीं कि वे शारीरिक दृष्टिसे इतने दुर्बल हैं कि इस