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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पेश करनेका विचार है उसका मजमून भी इसके साथ है।[१] मैं यह अच्छी तरह महसूस करता हूँ कि कठिनाई अधिकार के प्रश्नपर होगी। "अधिकार" पर जोर दिये बिना इसका कोई हल निकालनेके प्रयत्नमें मेरी कई रातें चिन्तामें निकली हैं; लेकिन मुझे सफलता नहीं मिली है, क्योंकि इससे कम किसी भी बातका अर्थ, मेरी विनीत सम्मतिमें, उपनिवेशकी कानूनकी किताबमें हमारी प्रजातीय हीनताको अंकित करना होगा। आपके प्रश्नका यह उत्तर आपके इस सुझावका भी उत्तर है कि माँगोंकी गिनतीमें शिक्षित भारतीयोंके दर्जेके बजाय "कभी-कभी कुछ ऊँची शिक्षा पाये हुए भारतीयोंका प्रवेश", आदि कर दिया जाये। ऐसा कोई उलट-फेर सम्भव नहीं है, क्योंकि लड़ाई थोड़े-से शिक्षित भारतीयोंको प्रविष्ट कराने के लिए नहीं है, बल्कि सहज-स्वाभाविक या सैद्धान्तिक अधिकारको मान्य कराने के लिए है। यह "अधिकार" न देनेके जो निश्चित परिणाम होते हैं उनपर जोर देनेके उद्देश्यसे इस प्रश्नके सम्बन्ध में चिकित्सक, वकील आदिका उल्लेख किया गया है, और यह श्री कार्टराइटके मित्रोंको सन्तुष्ट करनेके उद्देश्यसे आवश्यक हो गया था...[२] स्पष्ट रूपमें यह समझने के लिए कि हमारी माँगका अभिप्राय उपनिवेश में ऐसे छः से अधिक भारतीयोंका प्रवेश नहीं है उन्हें साम्राज्यीय दृष्टिकोण अपनानेकी जरूरत है। सच तो यह है कि ऐसे प्रवेशके लिए प्रतिवर्ष शायद दो व्यक्ति भी आवेदनपत्र न दें, और मैं अपनेतईं तो स्थानीय सरकारसे यह आश्वासन भी नहीं माँगूँगा कि वह छः या छः से कम भारतीयोंको प्रवेश दे ही। सिद्धान्त मान लेनेपर, केवल प्रवेश एक छोटी बात है और मैं साफ-साफ स्वीकार करता हूँ कि यदि यह सिर्फ थोड़े-से भारतीयोंके प्रवेशका ही प्रश्न होता, तो मैंने अपने ट्रान्सवालवासी भाइयोंको भयंकर कष्ट उठानेकी सलाह कभी न दी होती।

आपने विवरण में[३] सुधारके सम्बन्धमें जो नये और मूल्यवान सुझाव दिये हैं उनके लिए मैं आपका बहुत कृतज्ञ हूँ। श्री रिचके साथ मिलकर मैं उसपर तुरन्त काम शुरू कर रहा हूँ। इन सुझावोंको शामिल करनेके बाद मैं कुछ प्रतियाँ छपवा लूँगा और आपको भेज दूँगा; लेकिन उनके छापनेका अन्तिम निर्देश तबतक न दूँगा जबतक आपकी मंजूरी और प्रचारकी अनुमति न मिल जाये।

आपका आज्ञाकारी सेवक,

[सहपत्र]

इस आरोपके सम्बन्धमें कि शिक्षित भारतीयोंका प्रश्न एक नया प्रश्न है

यह स्मरण रखना आवश्यक है कि दो सम्मेलन हुए थे, एक जनवरी १९०८ में हुआ था, जब श्री गांधी जेलमें ही थे।[४] उस समय शिक्षित भारतीयोंके प्रश्नकी चर्चा नहीं की गई

  1. यह सहपत्र उपलब्ध नहीं है; लेकिन गांधीजीने संशोधनका जो मसविदा बनाया था उसे लॉर्ड एम्ट हिलने उनसे लेकर १० अगस्तको जनरल स्मट्सको भेज दिया था। यह सहपत्र २ में दिया हुआ है। लॉर्ड ऍम्टहिलने गांधीजी द्वारा उनके ९ अगस्तके पत्र में सुझाई गई धाराको शामिल कर लिया था; लेकिन यह नहीं बताया था कि यह गांधीजीकी सुझाई हुई है। देखिये "पत्र: लॉर्ड ऍस्टहिलको", पृष्ठ ३४१-४२।
  2. मूल प्रतिमें यहाँ कुछ शब्द गायब हैं ।
  3. देखिए "ट्रान्सवालवासी भारतीयोंके मामलेका विवरण", पृष्ठ २८७-३००।
  4. गांधीजीको १० जनवरी, १९०८ को दो महीनेकी सजा दी गई थी, परन्तु उन्हें ३० जनवरीको रिहा कर दिया गया था। देखिए खण्ड ८, पृष्ठ ३६-३७ और पृष्ठ ४३-४४।