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पत्र: लॉड क्रू के निजी सचिवको

चीफ वार्डरसे निवेदन किया था कि मुझे आपसे मिलने दिया जाये, लेकिन उसने अनुमति नहीं दी ।

मैं "आरक्षित शिविर" (रिजर्व कैम्प) में रखा गया था, जो अभी हालमें ही खोला गया है। वहाँ बहुत तकलीफ थी। पानी काफी नहीं मिलता था। नहानेकी कोई सुविधा नहीं थी। मैं दो महीने जेलमें रहा; इन दिनों में शायद ही कभी नहा पाया। मैंने अधिकारीसे शिकायत की। उसने कहा: "क्या तुम अन्धे हो? तुम देखते नहीं कि यहाँ गुसलखाना नहीं है?" तब मैंने कहा: "अगर यहाँ एक सालतक गुसलखाना न बने तो कैदी क्या करेंगे?" इसपर उसने जवाब दिया: "उनको उसके बिना ही काम चलाना होगा।"

खाना भी काफी नहीं मिलता था। इसके अलावा, शनिवारके दिन जब कैदियोंको अपने तौलिये, मोज़े आदि घोने होते थे, २०० लोगोंके लिए केवल एक टंकी होती थी। मुझको घी बिल्कुल नहीं मिलता था। जेलवाले भातमें चर्बी मिला देते थे, जो मैं नहीं खाता था। मैंने इस बारेमें शिकायत की, लेकिन मेरी शिकायतपर कोई ध्यान नहीं दिया गया। मैंने चीफ वार्डरका ध्यान इस बातकी ओर आकर्षित किया कि आपने घी न दिया जानेकी शिकायत की थी। चीफ वार्डरने बताया कि चूंकि आप घीके बिना काफी खाना नहीं खा पाते थे, इसलिए आपसे यह कह दिया गया था कि दूसरे भारतीय कैदियोंको भी घी दिया जायेगा, ताकि आप खाना खानेके लिए रजामन्द हो जायें। आप जेलके गवर्नर और चीफ वार्डरका स्वभाव जानते हैं। हमें जब शिकायत करनी हो, वे इतनी देर भी नहीं ठहरते कि उसको सुन तो लें। बादमें मुझे नई भोजन-तालिकाके अनुसार खाना मिलने लगा। यह खाना भी काफी नहीं है। चार औंस रोटीकी मंजूरी थी; लेकिन मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मुझे दो औंससे ज्यादा रोटी मिलती है। दलिया केवल नामका दलिया है, क्योंकि वह तो निरा पानी होता है और होता भी बहुत कम है। जो रोटी, भात, शाक वगैरह दिया जाता है, उसमें से बहुत-कुछ अहातेमें काम करनेवाले वतनी कैदी चुरा लेते हैं। ६ औंस चावल देनेकी आज्ञा थी; लेकिन मुझे मुश्किलसे तीन औंस मिलता था। मेरा विश्वास है कि काफिर लगभग पन्द्रह रकाबी खाना चुरा लेते हैं और वार्डर कुछ नहीं कहते। इसके अलावा, वार्डर गालियाँ देते हैं। मैंने यह सब चुपचाप बर्दाश्त किया।

काम कुछ ज्यादा न था। मैं ३२ लोगोंकी एक टुकड़ीके साथ लॉर्ड सेल्बोर्नकी कोठी-पर ले जाया जाता था। वहाँ हमें घास काटने, बेलन चलाने, खोदने, पत्थर तोड़ने, पेड़ काटने, जमीन साफ करने और पेड़ोंमें पानी देनेका भी काम करना पड़ता था। इन कामोंमें से सिर्फ खुदाईका काम कुछ कठिन होता था, क्योंकि वहाँ सारी जगह पथरीली थी, और पत्थर बहुत कड़ा भी था। बाग एक टेकरीपर था। हमें काफिरोंके साथ बन्द किया जाता था। एक भी यूरोपीय अधिकारी ऐसा न था जो हमको भारतीय कहता हो। हमें "सामी" या "कुली" कहकर पुकारा जाता था। ज्यादातर वार्डर डच थे; उनमें से कुछ छोकरे ही थे, जिन्हें कामकी कोई जानकारी न थी।

आखिर ७४ मद्रासी भारतीय आये। वे बहुत बड़ी मुसीबतमें हैं। वे बड़ी तकलीफ पा रहे हैं। उनमें से पाँच बहुत ही बूढ़े, शायद साठ सालसे ऊपरके हैं। वे अच्छी तरह चल नहीं सकते हैं। इनको भी सुबह बहुत तड़के थर-थर काँपते हुए काम करनेके लिए बाहर भेज दिया जाता है। और चूँकि उनको बहुत दूर पैदल घिसटना पड़ता है, वे बेचारे