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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


लन्दनमें हम बड़े-बड़े अधिकारियोंसे मिलने और लोकमतको जागृत करनेके लिए आये हैं। हम उपनिवेश मन्त्री और अन्य सज्जनोंसे मिले हैं और हमने उनके सामने पेश किये विवरणको चारों ओर भली भाँति प्रचारित किया है। जबतक भारतके भारतीय हृदयसे हमारी सहायता न करेंगे तबतक यहाँ लॉर्ड कू या लॉर्ड मॉर्ले कुछ ज्यादा कर सकें, यह सम्भव नहीं है।

नेटालमें भारतीयोंकी आबादी बहुत है और वहाँ उनकी बड़ी मिल्कियत है। वे भारतके सभी भागोंसे आये हुए हैं। उनकी संख्या एक लाख है। इनमें से लगभग दस हजार लोग व्यापारमें लगे हैं और बाकी गिरमिटिया मजदूर हैं या वे लोग हैं जो गिरमिटसे मुक्त हो चुके हैं। नेटालकी समृद्धि भारतीय मजदूरोंके श्रमपर ही निर्भर है, इस बातको सभी मंजूर करते हैं। हम भारतकी सहायता करनेमें भी पीछे नहीं हटे हैं। पिछले दो अकालोंमें गरीब और अमीर सभीने अपने-अपने सामर्थ्यके अनुसार चन्दा देकर अकाल-सहायता कोषमें धन भेजा है। हमें धनकी सहायता नहीं चाहिए; किन्तु भारत [दूसरी तरहसे] हमारी सहायता करके हमारे दुःख कम कर सकता है, यह तो हमारा निश्चित मत है।

विवरणसे आप देख सकेंगे कि नेटालमें तीन तरीकोंसे हमें बर्बाद करनेका रास्ता अख्तियार किया गया है। एक तो व्यापारिक लाइसेंसों द्वारा अन्याय किया जाता है। लाइसेंस देनेवाला अधिकारी और लाइसेंस बोर्ड [के सदस्य] जो हमारे प्रतिस्पर्धी हैं, मनमाने तौरपर हमारे परवाने रोक लेते हैं और उनके सम्बन्धमें कानूनी अदालतोंमें अपील नहीं की जा सकती। दूसरे, नेटालको समृद्ध बनानेके लिए भारतीय गिरमिटियोंको गुलामोंकी तरह मजदूरी करनी पड़ती है। फिर भी, गन्नेके खेतों और चायके बागोंमें या खानोंमें कड़ा काम करके अपनी अवधि पूरी करनेके बाद उनको और उनके स्त्री-बच्चोंको भारी कर देना पड़ता है। इससे स्वतन्त्रतापूर्वक इस उपनिवेशमें रहकर वे अपना गुजारा करनेमें असमर्थ रहते हैं। और, तीसरे, हमारे बालकोंको शिक्षा देनेके जो साधारण साधन प्राप्त थे वे भी बन्द कर दिये गये हैं और इस प्रकार हमारी भावी उन्नतिका द्वार बन्द कर दिया गया है।

अब यदि भारतमें सभाओं और प्रार्थनापत्रों आदिसे हमारे कष्टोंके सम्बन्धमें पुकार नहीं की जायेगी तो हमें भूखों मरकर इस उपनिवेशसे भागना पड़ेगा; और इसमें बहुत समय भी नहीं लगेगा। भारत सरकारके हाथमें इसका एक कारगर उपाय है। वह यह है कि जबतक नेटाल सरकार हमारे अधिकार स्वीकार न करे तबतक भारत नेटालको मजदूर भेजना बन्द रखे। लॉर्ड कर्जनने ऐसा रास्ता अपनाया था। उन्होंने [नेटाल सरकारको] यह पत्र भी लिखा था कि यदि भारतीय व्यापारियोंकी स्वतन्त्रताकी रक्षा करनेका आश्वासन न दिया जायेगा तो मजदूर रोक दिये जायेंगे। इन बातोंका कोई और परिणाम तो ज्ञात नहीं हुआ; भारतीयोंकी स्वतन्त्रताकी रक्षाके बजाय ऊपर लिखे अनुसार कड़े कानून जरूर बना दिये गये हैं और उनपर क्रूरताके साथ अमल किया जाता है। हमारे गुजर-बसरके साधनोंमें दिन-प्रतिदिन कमी होती जाती है और ब्रिटिश प्रजाके रूपमें सामान्य अधिकारोंके साथ इस उपनिवेशमें रहना भी खतरेमें पड़ गया है।