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२३६. पत्र: स्वामी शंकरानन्दको

[लन्दन]
अगस्त ३०, १९०९

प्रिय स्वामीजी,

आपका पत्र मिला। पहले आपका डिपो रोडमें दिया गया "कर्ज़न वाइली"—सम्बन्धी भाषण पढ़ा था। शिक्षा-सम्बन्धी पत्र भी देखा। उक्त तीनों लेखोंको पढ़कर मुझे दुःख हुआ है। आपने मुझे जो पत्र लिखा है उससे आपके इस्लाम-सम्बन्धी विचार प्रकट होते हैं। दूसरे दोनों लेखोंसे इस्लाम धर्मके अनुयायियोंके प्रति आपका व्यवहार प्रकट होता है। आपके इस्लाम धर्म सम्बन्धी विचारोंके विषयमें मैं कुछ नहीं कहता। लेकिन यह मैं जानता हूँ कि इस्लाम धर्मपर आपका आक्षेप हिन्दू धर्मके रहस्यके विरुद्ध है। फिर, आक्षेप किया तो किया, मगर उसे करते हुए आपने नीतिके विरुद्ध अपनी सुविधाके विचारसे ऐसा व्यवहार किया; उससे और भी दुःख होता है। आपने हिन्दू धर्मका रक्षक अंग्रेजोंको माना है; यह तो आपने अपनी अति दीनता प्रकट की है। यदि मैं स्वयं अपने धर्मकी रक्षाके योग्य न होऊँ तो दूसरे धर्मका अनुयायी उसकी रक्षा कैसे करेगा? आपके शिक्षा-सम्बन्धी विचारोंको मैं हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच सिर्फ विरोध पैदा करनेवाला मानता हूँ। अगर हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच इतना अन्तर रखनेकी आवश्यकता हो तब तो भारत पराधीन रहनेका ही पात्र है। इसमें विदेशियोंको दोषी भी कैसे बताया जा सकता है? ऐसा अन्तर रखनेसे तो हिन्दू धर्मका लोप ही हो जायेगा। सौभाग्यसे हिन्दू धर्मकी स्थिति अचल है। मेरी अविचल श्रद्धा है कि जिस धर्मकी रक्षा हजारों वर्षसे होती आ रही है उसका लोप हमारे धर्मगुरुओंके हाथों भी नहीं होगा। आपको क्या लिखूँ? आपके ज्ञानके प्रति मेरा आदरभाव है; लेकिन आपके व्यवहारसे मुझे दुःख हुआ है।

[गुजरातीसे]

'गांधीजीना पत्रो', संख्या १४; सम्पादक डाह्याभाई पटेल, प्रकाशक: सेवक कार्यालय, अहमदाबाद और 'गांधीजीनी साधना', लेखक: रावजीभाई पटेल, पृष्ठ १७६-७७।