२३७. पत्र: मणिलाल गांधीको
[लन्दन
अगस्तका अन्त] १९०९
तुम्हारा पत्र मिला।
तुम्हारा मन बिलकुल शान्त हो गया हो, तुम अपने काममें बिलकुल लग गये हो, और विद्याभ्यास निश्चिन्त होकर करते हो तो मैं अपने-आपको भाग्यशाली मानूँगा। तुम इस देशमें आनेकी उतावली करो, इसकी जरूरत नहीं जान पड़ती। यहाँके लोग बहुत अधम दिखाई देते हैं। मिलेंगे तब ज्यादा बातें होंगी।
तुम बालकोंको पढ़ानेका काम करते हो, यह सराहनीय है।
मोहनदासके आशीर्वाद
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी॰ डब्ल्यू॰ ८६) से।
सौजन्य: सुशीलाबेन गांधी।
२३८. पत्र: लॉर्ड ऍम्टहिलको
[लन्दन]
सितम्बर १, १९०९
मैं आपके गत मासकी ३१ तारीखके पत्रके[१] लिए आपका अत्यन्त आभारी हूँ।
यदि जनरल स्मट्सका निर्णय[२] अन्तिम हो तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन मुझे भय है कि "अधिकार" के प्रश्नके सम्बन्धमें मैंने जो रुख ग्रहण किया है उससे पीछे हटना मेरे लिए सम्भव न होगा। मेरी सम्मतिमें, यदि यह "अधिकार" स्वीकार नहीं किया जाता तो एक सीमित संख्यामें शिक्षित भारतीय प्रवासियोंका निवास स्थायी बना देनेसे कोई लाभ न होगा। यदि केवल सैद्धान्तिक अधिकार भी अक्षुण्ण रहे तो किसी भारतीयको ट्रान्सवालमें प्रवेश करनेकी आवश्यकता नहीं है। और छ: की संख्याके निर्धारणका कारण भी श्री कार्टराइटकी यह चिन्ता थी कि मैं भारतीय समाजकी इस घोषणाका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण दूँ, कि शिक्षित भारतीयोंके दर्जेके प्रश्नके पीछे ट्रान्सवालमें ब्रिटिश भारतीयोंको भर देनेका कोई इरादा नहीं है। इसलिए आप देखेंगे कि जनरल स्मट्सके प्रस्तावसे भारतीयोंकी आवश्यकता तनिक भी पूरी नहीं होती। इसके विपरीत उससे भारतीयोंका और भी गम्भीर