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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। किन्तु ये सभी बातें वर्तमान सभ्यताकी बहुत बड़ी निशानियाँ मानी जाती हैं। इनका महत्त्व क्या है, यह तो जाननेवाले जानें। मुझे तो ये सभी पागलपनकी निशानियाँ दिखाई देती हैं। मनुष्यको योग्य काम न मिले, इसलिए वह अपना वक्त जैसे-तैसे गुजारे, और धनके अति लोभके कारण जैसे भी सम्भव हो, धन कमानेका साधन निकाले ऐसी हालत, मैं तो कहूँगा, दुश्मनकी भी न हो।

स्त्रियोंके लिए मताधिकारका आन्दोलन
करनेवाली महिलाएँ

मताधिकार प्राप्त करनेके लिए आन्दोलन करनेवाली कुछ स्त्रियाँ अधीर हो उठी हैं। वे जेल जाती हैं, यह तो अच्छी बात है। वे स्वयं कष्ट उठायें, इसमें तो कोई कुछ कह नहीं सकता। किन्तु मताधिकार तुरन्त नहीं मिलता, इसलिए अब वे प्रधानमन्त्री श्री एस्क्विथकी खिड़कियाँ तोड़नेके लिए उद्यत हो गई हैं। वे उनके आराममें खलल डालती हैं, और उनके घरपर धावा बोलती हैं। ऐसा तीन स्त्रियोंने किया। ये स्त्रियाँ पकड़ी गई, फिर भी उनका क्या किया जा सकता था? उनपर मुकदमा भी नहीं चलाया गया। यह सब बेढंगा है; स्त्रियाँ होनेके कारण वे अपराध करनेपर भी छूट जाती हैं। अंग्रेज लोग स्त्री-जातिका आदर करते हैं, इसलिए इन स्त्रियोंपर कोई हाथ नहीं उठाता। ये स्त्रियाँ इस बातको जानती हैं, इसलिए इसका अनुचित लाभ उठाती हैं। इससे कुछ मताधिकार मिलनेवाला नहीं है। यदि अंग्रेज स्त्रियाँ केवल सत्याग्रहकी विधिसे ही लड़ती हों तो वे उक्त आचरण नहीं कर सकतीं थीं। सत्याग्रह और अधैर्यका मेल नहीं है। थोड़ी-सी स्त्रियाँ ही मताधिकार प्राप्त करना चाहती हैं और ज्यादा उसके विरुद्ध है, इसलिए इन थोड़ी-सी स्त्रियोंके सामने बहुत समय तक कष्ट सहन करना ही एकमात्र मार्ग है। वे कष्टोंसे हारकर अपनी मर्यादाका त्यागकर मार-पीट करेंगी तो उनको जो सहानुभूति मिल चुकी है उसको खो देंगी और लोग उनका विरोध करेंगे। इससे हमें यह शिक्षा लेनी है कि हमें सत्याग्रह रूपी तलवारका त्याग करके कभी अधीर नहीं होना चाहिए। ऐसा करनेका अर्थ होगा आधी मंजिल पार करके लौट पड़ना। इसलिए दूसरोंके इस उदाहरणसे हमें धीरजकी शिक्षा लेनेकी बहुत जरूरत है। [हममें से] जो सत्याग्रही नहीं हैं उनके तो अधीर होनेकी बात ही नहीं है। जो सत्याग्रही हैं उनके लिए भी, यदि उन्हें सत्यके वलपर पूरा विश्वास हो तो धैर्य त्यागनेका कोई कारण नहीं है। जब जितना चाहिए उतना सत्य-बल इक्ट्ठा हो जायेगा तब असत्य अपने-आप नष्ट हो जायेगा।

गाइ एल्फ्रेड

गाइ एल्फ्रेड 'इंडियन सोशियालॉजिस्ट' के पिछले अंकके मुद्रकका नाम है। उनकी आयु २२ बरसकी है। उनका मुकदमा खत्म हो चुका है। सफाईमें तो कुछ कहा ही नहीं गया। पत्रमें हत्याकी खुली प्रशंसा की गई थी। उनको बारह मासकी जेल मिली है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ९-१०-१९०९