श्री वेस्टको चूज़ेका शोरवा और दूसरी चीजें दी गई, इस बारेमें हमें निष्पक्ष बुद्धि रखनी चाहिए। मेरे विचार तो तुम्हें मालूम हैं। शोरवा[१] दिये बिना बाका शरीरपात होता तो वह मुझे मंजूर था; लेकिन बा की अनुमति बिना मैं तो उन्हें शोरवा हरगिज न देने देता। देह आत्मासे प्यारी न होनी चाहिए। जो मनुष्य आत्माको जानता है और देहसे आत्माके अलग होनेकी बात भी जानता है, वह हिंसात्मक उपायोंसे देहकी रक्षा न करेगा। यह काम बहुत मुश्किल है; लेकिन जिसके संस्कार बहुत पवित्र हैं वह इस बातको सहज ही समझता है और उसपर आचरण करता है। यह मान्यता बहुत भूल-भरी है कि आत्मा देहमें रहकर ही भला या बुरा कर सकती है। इस मान्यताके कारण संसारमें घोर पाप हुए हैं और अब भी हो रहे हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम इस मान्यतासे मुक्त रहो। आत्मज्ञान बड़ी आयु पाकर ही होता हो, यह कोई नियम नहीं है। बहुत-से वृद्ध आत्मज्ञानके बिना ही मर जाते। दूसरी ओर स्वर्गीय रायचन्दभाई जैसे पुरुष आठ वर्षकी आयुमें ही आत्माको पहचान सके हैं। आत्मज्ञान होनेपर भी मनुष्यसे भूलें होती हैं, पाप होता है। परन्तु इस सबसे बहुत विचार करनेपर छुटकारा हो सकता है। देह हमें दमन करनेके लिए ही मिली है।
समझौतेका अभी कोई निश्चय नहीं है। इस बारेमें विशेष छगनभाईके पत्रमें[२] देखना।
ऊपर जो-कुछ लिखा है वह प्रसंगवश ही है। इसे दूसरे भाइयोंको भी पढ़ा देना।
मोहनदासके आशीर्वाद
गांधीजी के स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी॰ डब्ल्यू॰ ८९) से।
सौजन्य: सुशीलाबेन गांधी।
२६९. पत्र: नारणदास गांधीको
लन्दन
सितम्बर १७, १९०९
चि॰ छगनलालका पत्र आया है। उससे देखता हूँ कि वह अभी वहाँ न आ सकेगा, क्योंकि श्री वेस्ट अचानक सख्त बीमार हो गये हैं। जैसे राम रखेगा वैसे रहना पड़ेगा। फिर हर्ष-विषाद क्या करें? तुम मुझे पत्र लिखते रहना। अभी समझौतेकी बात चल ही रही है। यह नहीं कहा जा सकता कि इसका परिणाम क्या होगा।
श्री खुशालभाईको और देवभाभीको दण्डवत्।
मोहनदासके आशीर्वाद
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी॰ डब्ल्यू॰ ४८९७) से।
सौजन्य: नारणदास गांधी।