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२८३. पत्र: 'ऍडवोकेट ऑफ़ इंडिया' को [१]

[लन्दन]
सितम्बर २८, १९०९

सेवामें


सम्पादक
'ऍडवोकेट ऑफ़ इंडिया',
[बम्बई]


महोदय,

आपने श्री जहाँगीर बोमनजी पेटिटके पत्रपर अप इसी ९ तारीखकेन अंकमें जो पाद-टिप्पणी दी है और उसमें अन्य बातोंके साथ श्री हेनरी एस॰ एल॰ पोलकको वेतनभोगी एजेंट कहनेपर जो खेद प्रकट किया है, उससे मुझे आपको यह पत्र लिखनेकी प्रेरणा मिली है।

आपने कहा है, "हमने श्री पोलकका उल्लेख वेतनभोगी एजेंटके रूपमें किया और कहा है कि उसके कारण उनके सम्बन्धमें हमारा खयाल बुरा नहीं होता। किन्तु यदि वे महानुभाव यह समझते हों कि इससे उनकी प्रतिष्ठापर आँच आती है और वे हमें विश्वास दिला सकते हों कि हमारी बात गलत है, तो हम उनसे क्षमा माँगनेके लिए तैयार हैं। मैं आशा करता हूँ, निम्न विवरणसे आपको विश्वास हो जायेगा कि आपकी बात गलत है और आप ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंसे, जिनका प्रतिनिधित्व श्री पोलक करते हैं, क्षमा माँगेंगे; क्योंकि श्री पोलकको क्षमा याचनाकी अपेक्षा नहीं है। यदि कोई बुराई हुई है तो उनके साथ हुई है जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं।

आप कहते हैं कि यदि वे वेतनभोगी एजेंट हों तो भी उनके सम्बन्धमें आपका खयाल बुरा नहीं होता। फिर भी आपके अग्रलेखकी, जिसे मैंने कई बार पढ़ा है, ध्वनि ऐसी है

  1. ष्ट है कि यह पत्र ऍडवोकेट ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित नहीं किया गया था। लेकिन श्री जे॰ बी॰ पेटिटने इसे ७-११-१९०९ के गुजरातीमें ऍडवोकेट ऑफ़ इंडिया और श्री पोलक' शीर्षक से छपवा दिया था। उसके साथ यह परिचयात्मक पत्र भी छपा था: "आपको याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले ऍडवोकेट ऑफ़ इंडियाने श्री पोलकको लगभग 'वेतनभोगी एजेंट' कहा था, और इस तरह, वे यहाँ हमारे ट्रान्सवालके पीड़ित भाइयोंकी ओरसे जो काम कर रहे हैं, उसके महत्त्वको घटानेकी कोशिश की थी। श्री पोलकने इसपर आपत्ति की तो सम्पादकने आधे मनसे अपने कथनको वापस लिया, लेकिन अपने आरोपको पूरी तरह वापस लेनेकी शालीनता या उदारता नहीं दिखाई। जब इस अशोभनीय आक्षेपकी ओर श्री गांधीका ध्यान गया तब उन्होंने २८ सितम्बरको सम्पादकको यह पत्र लिखा। इस पत्रको बम्बई आये लगभग पन्द्रह दिन हो चुके हैं; लेकिन यह अभीतक प्रकाशित नहीं किया गया है। क्या आप कृपा करके इस पत्रको अपने स्तम्भोंमें छाप देंगे? आपके सहयोगीने इस पत्रको न छापकर इस मामले में, जो बहुत नहीं है, अपने शेष व्यवहारके अनुरूप ही कार्य किया है। "