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पत्र: 'ऍडवोकेट ऑफ इंडिया' को

कि उससे श्री पोलकके प्रयत्नोंका मूल्य निःसन्देह बहुत कम हो जाता है। मैं उनको व्यक्तिगत रूपसे जानता हूँ; वे मेरे प्रिय मित्र और भाई हैं। वे इस आन्दोलनमें सम्मिलित हुए, उन्होंने गरीबीका व्रत लिया और जोहानिसबर्गके एक साप्ताहिक पत्रके सहायक सम्पादकका पद छोड़ दिया। यदि वे सांसारिक सम्पदाओंके अभिलाषी होते तो उनके लिए वह नौकरी अन्तत: महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती थी। चार वर्षसे अधिक समय तक उन्होंने ब्रिटिश भारतीय समाजके कोषमें से एक पैसा भी नहीं लिया, क्योंकि उन्हें उसकी कोई जरूरत नहीं थी। इस पूरे समयमें वे इस समाजका काम करते रहे।

ट्रान्सवालके संघर्षसे श्री पोलक, बहुत-से भारतीयोंकी भाँति ही, अपनी आजीविका उपार्जित करनेके साधनोंसे या, यों कहें कि, अवसरसे भी वंचित हो गये। तबसे श्री पोलकने सम्मिलित कोषमें से रोटी जुटाने-भरको पैसा लिया है, हालांकि उन्होंने अपना एक-एक मिनट संघर्ष में ही लगाया है। यदि मैं उनको कुछ भी जानता हूँ, तो मैं यह कह सकता हूँ कि अगर समाजके पास अपने कार्यकर्ताओंको भोजन देने योग्य पर्याप्त पैसा न निकले तो भी श्री पोलक अपने काममें लगे रहेंगे और जरूरी होगा तो जिन लोगोंके पक्ष में वे बहुत-से दूसरे लोगोंके साथ-साथ वकालत कर रहे हैं, उनके लिए न्याय प्राप्त करनेके प्रयत्नमें वे अपना जीवन भी दे देंगे।

आप या बम्बईके लोग नहीं जानते कि श्री पोलकने अपने विवाहके प्रारम्भिक दिनोंसे ही अपना बहुत कम समय अपनी पत्नीको दिया है और उनकी पत्नीने भी लगभग अनिश्चित रूपसे लम्बे वियोगको इसलिए खुशीसे सहा है कि उनके पति स्वेच्छासे ग्रहण किये अपने कर्तव्यको ज्यादा अच्छी तरह निभा सकें।

मेरा अनुमान है कि "वेतनभोगी एजेंट" शब्दोंका अर्थ ऐसा प्रतिनिधि जो अपने कामका पर्याप्त मूल्य ले लेता है, और यद्यपि अक्सर ऐसा होता है कि वह अपना काम काफी अच्छी तरह करता है, किन्तु फिर भी काम वह उस पैसेके लिए करता है, जो उसे मिलता है, न कि इसलिए अमुक काम उसको प्यारा होता है। एक पुत्र संयुक्त परिवारमें पुत्रका अपना कर्तव्य निभाता है, इसमें वह खूब मरता-खपता है। उसको कपड़ा और खाना परिवारके कोषमें से ही मिलता है। तब यदि हम उस सुपुत्रको वेतन-भोगी एजेंट कह सकें तो श्री पोलक भी निस्सन्देह वेतन-भोगी एजेंट कहे जा सकते हैं, अन्यथा नहीं।

मैंने जो तथ्य आपके सामने रखे हैं, यदि उनको जाननेके बाद भी आप श्री पोलकको वेतनभोगी एजेंट समझेंगे तो मुझे भय है कि उनके साथी प्रतिनिधि भी अवश्य ही 'वेतनभोगी एजेंट' माने जायेंगे; क्योंकि अगर उन्हें रवाना होनेसे पहले जनरल स्मट्सने गिरफ्तार न कर लिया होता तो वे भी श्री पोलकके साथ ही रहते और उनका मार्ग-व्यय और होटलका व्यय भी भारतीय समाज ही देता।

मुझे विश्वास है कि न्यायकी खातिर आप कृपा करके इस पत्रको स्थान देंगे।

आपका, आदि,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रतिकी फोटो-नकल (एस॰ एन॰ ५०९९) से।