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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अभी जारी है और कहा नहीं जा सकता इसका अन्त कब आयेगा। तथापि हममें से कुछ लोग तो यह अच्छी तरह समझ गये हैं कि जहाँ पशुबलकी हार निश्चित हो, अनाक्रामक प्रतिरोध वहाँ भी विजयी होगा और हो सकता है। हमने यह भी देखा है कि जहाँतक संघर्षके लम्बे चलनेकी बात है बहुत अंशोंमें उसका कारण है हमारी अपनी ही कमजोरी और उसी कमजोरीसे उत्पन्न सरकारकी यह धारणा कि हम बहुत दिनों तक लगातार कष्ट सहनेमें समर्थ नहीं होंगे।

मैं अपने एक मित्रके साथ यहाँ साम्राज्यीय अधिकारियोंसे मिलने और परिस्थितियों को उनके सामने रखनेके लिए आया हूँ, ताकि राहत मिल सके। सत्याग्रहियोंने यह समझ लिया है कि सरकारके सामने अनुनय-विनय करनेसे उन्हें कोई वास्ता नहीं रखना है, किन्तु समाजके अपेक्षाकृत निर्बल सदस्योंके आग्रहसे शिष्टमण्डल यहाँ आया है और इसलिए वह उनकी शक्तिका नहीं, अशक्तिका प्रतिनिधित्व करता है।

मैंने यहाँ आकर जो-कुछ देखा-सुना, उससे ऐसा लगता है कि यदि अनाक्रामक प्रतिरोधकी आचार-नीति और उसकी अमोघतापर एक आम निबन्ध प्रतियोगिता आयोजित की जाये तो उससे आन्दोलन लोकप्रिय होगा और लोग इस विषयमें विचार करेंगे। प्रस्तावित प्रतियोगिताके सन्दर्भ में एक मित्रने नैतिकताका प्रश्न उठाया है। उनका खयाल है कि ऐसी प्रतियोगिताका आमन्त्रण देना अनाक्रामक प्रतिरोधकी वास्तविक भावनासे मेल नहीं खाता और यह तो एक तरहसे सहमति खरीदना हो जायेगा। मैं नैतिकताके बारेमें आपकी राय जाननेका अभिलाषी हूँ। यदि आपकी समझमें निबन्ध-लेखनके आमंत्रणमें कोई बुराई न हो तो मैं आपसे उन व्यक्तियोंके नाम सुझानेकी प्रार्थना भी करूँगा जिनसे इस विषयपर लिखनेकी विशेष प्रार्थना की जानी चाहिए।

एक और बातके लिए मैं आपका कुछ समय लेना चाहता हूँ। मुझे एक मित्रसे भारतकी वर्तमान अशान्तिके बारेमें एक हिन्दूके[१] नाम आपके लिखे गये पत्रकी प्रतिलिपि मिली है। देखनेसे तो लगता है कि उसमें आपका मत ही प्रतिबिम्बित है। मेरे मित्रकी इच्छा

है कि वे अपने खर्चसे उसकी २०,००० प्रतियाँ छपवाकर बँटवा दें और उसका अनुवाद भी करायें। किन्तु हमें इसकी मूल प्रति नहीं मिल सकी है और हमें लगता है कि जबतक यह निश्चय न हो जाये कि पत्र आपका ही है और प्रति बिलकुल सही है, तबतक उसका प्रकाशन ठीक नहीं होगा। मैं प्रतिलिपिकी प्रतिलिपि साथमें भेज रहा हूँ और यदि आप यह सूचित कर सकें कि पत्र आपका है या नहीं, उसकी प्रतिलिपि सही है या गलत और आप उसे उपर्युक्त ढंगसे प्रकाशित करनेकी अनुमति दे रहे हैं या नहीं तो मैं आभारी होऊँगा। यदि आप पत्रमें कुछ जोड़ना चाहें तो कृपा करके अवश्य जोड़ दें। मैं एक बात और सुझानेकी धृष्टता करूँगा। उपसंहारके अनुच्छेदमें आपने पाठकको पुनर्जन्मके विश्वाससे विरत करना चाहा है। मैं नहीं जानता (यदि मेरा यह करना आप अनुचित न मानें) कि

  1. बैंकूवरसे गुप्त रूपसे प्रकाशित फ्री हिन्दुस्तान, नामक एक पत्रिकाके सम्पादकोंने टॉल्स्टॉयके नाम एक पत्र लिखा था। यह पत्र उसीके जवाब में लिखा गया था। पत्रिका के प्रधान सम्पादक तारकनाथ दास थे। टॉल्स्टॉयफा पत्र इंडियन ओपिनियन के २५-१२-१९०९ और १-१-१९१० के अंकोंमें गांधीजी द्वारा लिखित प्रस्तावना के साथ छपा था। गांधीजीने इसका गुजराती अनुवाद भी किया था, जो पहले इंडियन ओपिनियन में छपा और फिर एक पुस्तिफाके रूपमें।