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लन्दन
मैं अत्याचारी शासकोंसे कहता हूँ : "अपनी जिन्दगीपर विचार करो, अपनी आत्माको खोजो और अपने ऊपर दया करो।"

जो व्यक्ति इस प्रकार लिख सकता सोच सकता है और उसके अनुसार व्यवहार कर सकता है, उसने तो जगत जीत लिया है, दुःख पर विजय प्राप्त कर ली है और अपना जीवन सार्थक बना लिया है। ऐसे जीवनमें ही सच्ची स्वतन्त्रता अथवा सच्ची आजादी है। हम ट्रान्सवालमें ऐसी ही स्वतन्त्रताकी आकांक्षा करते हैं। अगर भारत ऐसी स्वतन्त्रताका उपभोग करने लगे तो वह स्वराज्य ही होगा।

पोलकका काम

श्री पोलक भारतमें जो काम कर रहे हैं, वह अवश्य ही किसी दिन फल देगा। मुझे दूसरे लोगोंसे जो पत्र मिले हैं, उनपरसे देखा जा सकता है कि इस समय बम्बईमें हमारी लड़ाईकी ही चर्चा चल रही है। श्री पोलकने बम्बईके लोगोंका मन हर लिया है।

पेटिटकी दानशीलता

इस काममें श्री जहाँगीर बोमनजी पेटिटसे श्री पोलकको बहुत मदद मिली है। श्री पोलक उनके यहाँ ही ठहरे हैं। इतना ही नहीं, श्री पोलककी जो पुस्तिका छपी है, उसकी २०,००० प्रतियाँ भी श्री पेटिटने अपने ही खर्चसे छपाई हैं। इसमें उन्होंने १,००० रुपये खर्च किये हैं।

ऐसे उद्योगसे सत्याग्रहियोंमें दुगना शौर्य आना चाहिए।

पागलपन

'वन्दे मातरम्' नामका पत्र भारतमें या इंग्लैंडमें नहीं निकल सकता, इसलिए हाल ही में स्विट्ज़रलैंडसे निकाला गया है। इसमें खुल्लमखुल्ला मार-काट करनेकी सलाह दी गई है, मानो ऐसा करनेसे भारत आज ही स्वतन्त्र हो जायेगा। किन्तु, अगर स्वतन्त्र भी हो जाये तो वह उस स्वतन्त्रताका करेगा क्या? खैर; मैं इस बार मार-काटकी बातपर ज्यादा लिखना नहीं चाहता। नई हवावाले कुछ भारतीय युवक बिना विचार किये उन लोगोंको गालियाँ देते हैं और उनका तिरस्कार करते हैं, जिन्होंने आजतक भारतकी सेवा की है। ऐसा करनेसे भारत स्वतन्त्र होनेवाला नहीं है। 'वंदे मातरम्' के इस अंकमें श्री गोखले और उनके साथियोंपर आक्षेप किया गया है। लेखक कहता है कि श्री गोखले और उनके साथी नीच और कायर हैं। उसका खयाल है कि ऐसा आक्षेप करनेमें देशका कल्याण है। मुझे तो लगता है कि ऐसा लेख लिखनेवालेको निरा बालक ही होना चाहिए। जरा विचार करें! यह सम्भव है कि श्री गोखले, सर फीरोजशाह मेहता आदि उतनी दूर नहीं जाते जितनी दूर नौजवान जा सकते हैं। ऐसा हो तो क्या इससे उनका किया हुआ काम व्यर्थ हो जाता है? श्री गोखलेने भिखारी-जैसी हालतमें रहकर, अट्ठारह वर्षतक केवल जीवन निर्वाहका खर्च लेकर फर्ग्युसन कॉलेजके विद्यार्थियोंको पढ़ाया। उनमें इतनी शक्ति है कि अगर वे चाहते तो बहुत कमाई कर सकते थे। इस समय परिषद (लेजिस्लेटिव कौन्सिल) के सदस्यके रूपमें उनको जो पैसा मिलता है उसका अधिकांश वे परोपकारमें लगा देते हैं। जब श्री गोखलेने ऊपर लिखे अनुसार [त्याग] किया तब कम ही लोगोंमें ऐसा उत्साह था। उनका त्याग बहुत बड़ा था, यह सभी स्वीकार करेंगे। सर फीरोजशाहने बम्बई

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