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२९३. भाषण: गुजरातियोंकी सभामें[१]

[लन्दन
अक्तूबर ५, १९०९]

भारतमें आजकल नई हवा चल रही है। हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सभी आतुरतापूर्वक "मेरा देश" अथवा "हमारा देश" की रट लगा रहे हैं। हम इसके विषयमें फिलहाल राजनीतिक दृष्टिसे विचार नहीं करेंगे। भाषाकी दृष्टिसे विचार करते हुए सहज ही मालूम हो जाता है कि हृदयसे "हमारा देश" कहकर पुकारनेसे पहले हममें अपनी भाषाके प्रति अभिमान उत्पन्न होना चाहिए। यदि हम ताजे उदाहरणोंपर विचार करें तो देखेंगे कि बोअर लोगोंको आज जो स्वराज्य मिला है उसका एक प्रबल कारण तो यह है कि वे स्वयं भी और उनके बाल-बच्चे भी अधिकतर बोअर भाषाका ही उपयोग करते हैं। जनरल बोथा लॉर्ड क्रू से बात करते समय भी बोअर भाषाका उपयोग करते हैं। उनका अंग्रेजीका ज्ञान हमारे अंग्रेजीके ज्ञानसे बढ़ा-चढ़ा माना जा सकता है, किन्तु वे अपने सम्मानकी रक्षा करने और आदर्श उपस्थित करनेके विचारसे भी अपनी जन्मभूमिकी भाषाका उपयोग करते हैं। हमें ऐसे उदाहरण और भी मिलते हैं, किन्तु उनको यहाँ देनेकी आवश्यकता नहीं है।

इसलिए मुझे तो लगता है कि भारतमें छोटे-बड़े सभीका ध्यान अपनी-अपनी भाषाकी ओर जा रहा है, यह एक सन्तोषजनक प्रगति है। इस उद्गारकी अभिव्यक्ति भी देखनेमें आती है कि सारा भारतीय राष्ट्र एक भाषाका उपयोग कर सकता है। भविष्यमें शायद ऐसा हो भी सके। वह भाषा भारतकी ही होनी चाहिए, इसे सब कबूल कर लेंगे। किन्तु वह बादकी मंजिल हो सकती है। "मैं भारतीय हूँ", ऐसा अभिमान मनमें आये तो उसके अन्दर यह अभिमान भी होना चाहिए कि "मैं गुजराती हूँ"। यदि ऐसा न होगा तो हमारी "तीनमें न तेरहमें" की स्थिति हो जायेगी। हरएक प्रान्तके नेताओंको दूसरे प्रान्तकी भाषा अवश्य जाननी चाहिए। गुजरातीको बंगला, मराठी, तमिल, हिन्दी इत्यादि भाषाएँ सहज ही आ सकती हैं। यह कोई मुश्किल बात नहीं है। हम अपनी कुछ [गलत] धारणाओंके कारण अंग्रेजी भाषा सीखनेके लिए व्यर्थ ही जितनी माथापच्ची और मेहनत करते हैं, उससे आधा परिश्रम भी भारतीय भाषाओंको सीखनेके लिए करें तो कुछ और ही रंग आये। भारतका उद्धार बहुत-कुछ इसीमें समाया हुआ है। [किसी समय] मैं भारतकी शिक्षाके सम्बन्धमें लॉर्ड मैकॉलेके विचारोंके मोहमें पड़ गया था। दूसरे लोग भी मोहमें पड़े हैं। लेकिन मेरा वह मोह दूर हो गया है। मैं चाहता हूँ, दूसरोंका भी दूर हो जाये। लेकिन, शायद यह अवसर इस सम्बन्धमें ज्यादा कहने या सोचनेका नहीं है।

  1. राजकोटमें गुजराती साहित्य सम्मेलनका तीसरा अधिवेश होनेवाला था। सम्मेलनके समर्थन में उसके पूर्व ही, ५ अक्तूबरको, लन्दनमें गुजरातियोंकी एक सभा आयोजित की गई थी। उसमें गांधीजीने भाषण देते हुए यह प्रस्ताव पेश किया था: "यह सभा राजकोटमें इसी महीने होनेवाले गुजराती साहित्य सम्मेलनके तीसरे अधिवेशनको अपनी बधाई भेजती है और उसकी सफलताकी कामना करती है।" सभाकी रिपोर्ट इंडियन ओपिनियनमें "गुजराती भाषाके सम्बन्धमें कुछ विचार" शीर्षकसे प्रकाशित हुई थी; देखिए परिशिष्ट २९।