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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हेतु है—अर्थात् देशकल्याण—वही खत्म हो जायेगा। यदि ऐसा हो, तो उससे यही सिद्ध होगा कि अंग्रेजी पढ़नेकी कोई जरूरत नहीं है। अगर ऑपरेशनसे बीमारकी मौत ही हो जाये तो कोई भी कह सकता है कि ऑपरेशन नहीं किया जाना चाहिए।

फिर, गुजराती कोई त्यागने योग्य भाषा नहीं है। जिस भाषामें नरसी मेहता[१], अखा भगत[२] और दयाराम[३]-जैसे कवि हो गये हैं और उसे विकसित कर गये हैं, तथा जिसको बोलनेवाले दुनियाके तीन बड़े धर्मों—हिन्दू, इस्लाम और जरथुस्त्र—के अनुयायी हैं, उस भाषाकी उन्नतिकी कोई सीमा नहीं बाँधी जा सकती। एक ही विचार गुजराती भाषामें अनेक बार तीन तरहसे पेश किया जा सकता है। पारसी जिसे खुदा, मुसलमान जिसे अल्ला-ताला और हिन्दू जिसे ईश्वर कहेंगे, अंग्रेजी भाषामें उसके लिए एक ही नाम है "गॉड"। मुसलमान जो गुजराती लिखेगा उसमें अरबी और शेख सादीकी[४] फारसीकी छाया पड़ेगी; पारसीकी गुजरातीमें जरथुस्त्रके 'जेन्द' की छाया पड़ेगी और हिन्दूकी गुजरातीपर संस्कृतका प्रभाव होगा। हिन्दू और मुसलमान तो भारतकी सब भाषाओंकी सेवा करते हैं, लेकिन जान पड़ता है, पारसियोंको तो ईश्वरने ईरानसे गुजरातीकी सेवाके लिए ही यहाँ भेजा है। उनके उत्साही स्वभावके कारण गुजराती भाषाको बहुत लाभ हो सकता है। उनके हाथमें अनेक गुजराती पत्र-पत्रिकाएँ हैं। इसलिए उन्हें गुजरातीके भविष्यको बहुत यत्नपूर्वक सम्भालना चाहिए। मैं उनसे एक ही विनती करना चाहता हूँ, "जो भाषा आपकी मातृभाषा बन गई है, और जिसे अब आप छोड़ नहीं सकते, उस भाषाका आप खून न करें।" पारसी लेखक सरल गुजरातीमें सुन्दर विचार प्रस्तुत करते हैं, लेकिन भाषाके उच्चारण और हिज्जोंके सम्बन्धमें ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो जान-बूझकर उससे वैर ठान लिया हो। यह खेदकी बात है। सभी गुजरातियोंको इसपर विचार करना चाहिए। गम्भीरतापूर्वक विचार करनेपर हमें मानना पड़ेगा कि हिन्दू, मुसलमान और पारसी, इन तीनोंके पंथ न्यारे हैं। ऐसा लगता है, मानो तीनों "अपनी-अपनी सम्भालने" का निश्चय कर बैठे हों। मुसलमानोंने अभीतक शिक्षामें गहरी दिलचस्पी नहीं ली है। इसलिए उन्होंने गुजराती भाषापर अभी तक कोई स्पष्ट छाप नहीं डाली है। लेकिन वे शिक्षा ले रहे हैं। हिन्दुओं और पारसियोंको उन्हें शिक्षित करनेके लिए पूरा उद्योग करना चाहिए। यदि ऐसा हो, तो उनसे गुजराती भाषाको बहुत बड़ा सहारा मिलेगा।

राजकोटमें जो सम्मेलन होनेवाला है, उससे मैं नम्रतापूर्वक विनती करूँगा कि उसके नेता गुजराती भाषाके विज्ञ हिन्दू, मुसलमान और पारसी विद्वानोंकी एक मिली-जुली समिति बनायें। उस समितिका काम तीनों कौमोंके गुजराती लेखनपर निगाह रखना और लेखकोंको सलाह देना हो। विचारशील लेखकोंके लिए इस समितिसे अपने लेख बिना पारिश्रमिक दिये सुधरवाना भी सम्भव होना चाहिए।

  1. (१४१४-७९) गुजरातके सन्त कवि; गांधीजीके प्रिय भजन "वैष्णव जण तो तेने कहिये" के रचयिता।
  2. सत्रहवीं शताब्दीके रहस्यवादी कवि, जो अपने व्यंग्यके लिए प्रसिद्ध थे। ये वेदान्ती और बुद्धिवादी भी थे।
  3. (१७७७-१८५३) वैष्णव कवि। अनेक गीतोंके रचयिता जो गुजरात-भर में लोकप्रिय हैं।
  4. (११८४-१२९२) पारसी कवि।