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२९५. पत्र: एच॰ एस॰ एल॰ पोलकको

[लन्दन]
अक्तूबर ६, १९०९

प्रिय हेनरी,

कठूरसे लिखा आपका पत्र मिला। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपनी बातचीतमें—कमसे-कम मेरे साथ अपनी बातचीत में—मेरी चर्चा न करें? मैं समझता हूँ, हमारे उद्देश्यके हितको दृष्टिसे भी मुझे विचारसे बाहर ही रखना चाहिए। हाँ, जहाँ मेरी चर्चा करना आपको आवश्यक जान पड़े, वहाँ बात दूसरी है। मैं जानता हूँ, उत्तरमें आप कहेंगे कि आपने कभी भी मेरी अनावश्यक चर्चा नहीं की, लेकिन बात दरअसल ऐसी है नहीं। जैसाकि आप भी स्वीकार करेंगे, कभी-कभी आप अपने उत्साहमें बह जाते हैं। आप देखेंगे कि अगर आप ऐसा ही करते रहे तो एक दिन इसकी प्रतिक्रिया होगी—सो मेरे विरुद्ध नहीं; और मेरे विरुद्ध हो भी तो उसे तो अच्छी तरह सहा जा सकता है। प्रतिक्रिया हमारे उद्देश्यके विरुद्ध होगी, जो कमसे-कम आपको तो अच्छी नहीं लगेगी। मुझे एक बार श्री गोखलेसे भी, जब मैं उनके साथ कलकत्तेमें था[१] और उन्होंने मेरे खयालसे मेरी बहुत ज्यादा प्रशंसा कर दी थी, कुछ ऐसा ही कहना पड़ा था। बल्कि उनसे तो मैं कुछ कड़वे स्वरमें बोल गया था।

मुझे इस बात से खुशी हुई कि आपको वहाँके जीवनमें परायापन नहीं लगता। मैंने अपेक्षा भी यही की थी। आपने पहले ही उसके अच्छे होनेकी कल्पना कर ली थी।

इस हफ्ते बहुत कम कतरनें मिली हैं। इसके लिए जिम्मेदार कोई भी रहा हो, उसने अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया। मुझे 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' की रिपोर्टतक नहीं मिली। 'बॉम्बे गजट' भी नहीं मिला। आपने महिलाओंकी जिस सभामें भाषण दिया,[२] उसकी भी कोई रिपोर्ट नहीं मिली और न आपके सम्मानमें लिखी गई कविता ही। मूल देखनेकी बड़ी तीव्र इच्छा है।

यह पत्र मैं लॉर्ड क्रू की चिट्ठी मिलनेके बाद लिखवा रहा हूँ। उसके बारेमें आगे लिखूँगा। फिर भी, इतना कह देना चाहूँगा कि जाहिर है, हमारे वहाँके मित्रोंको, जो ऐसी उत्साहपूर्ण सभाओंके बावजूद इतने हताश हैं, या तो हमारे पक्षकी सचाईमें विश्वास नहीं है या इस बातमें भरोसा नहीं है कि अन्तमें सत्यकी विजय होती है। अन्तसे मेरा मतलब धूमिल और दूरस्थ भविष्यसे नहीं, बल्कि किसी ऐसी अवधिसे है, जिसका अन्दाजा लगाया जा सके और यह अन्दाजा इस बातसे लगाया जायेगा कि हम कोशिश कितनी करते हैं। क्या आप उन्हें यह नहीं समझा सकते कि सच्ची सफलता स्वयं प्रयत्नमें निहित है, और हमारा प्रयत्न है अनाक्रामक प्रतिरोध; कि हम अपने-आपको उत्तम प्रकारकी शिक्षा दे रहे हैं, जो किसी भी विश्वविद्यालयकी शिक्षासे अच्छी है; कि संघर्ष जितना लम्बा होगा, लोग अन्तमें उससे उतने ही निखरकर निकलेंगे, और आगे सुधारोंको प्राप्त करनेकी उनकी

  1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके १९०१ का अधिवेशन समाप्त होनेपर गांधीजी कोई महीने भर कलकत्ते में श्री गोखलेके साथ रहे थे। देखिए आत्मकथा, भाग ३, परिच्छेद १७-१९।
  2. सितम्बर १५ को पोल्कने बम्बईमें आयोजित महिलाओंकी एक सभामें भाषण दिया था। विषय था, "दक्षिण आफ्रिका में भारतीय महिलाओंकी अवस्था और स्थिति"।