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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


अगर आपने पारसी रुस्तमजी, रांदेरी, सोराबजी, व्यास, नानालाल, कामा, दाउद मुहम्मद, रविकृष्ण, मेढ...[१] हरिलाल, चेट्टियार तथा अन्य लोगोंके पास दो-चार पंक्तियाँ लिखकर नहीं भेजी हों तो कृपया अब वैसा कर डालिए।

जारी—७–१०–१९०९

विभिन्न पत्रों और पत्रोंके मसविदोंसे आपको पता चल जायेगा कि स्थिति कैसी है। यह पत्र मिलते-मिलते मेरा एक तार[२] भी आपके पास पहुँच जायेगा। लॉर्ड क्रू का जवाब जैसा मैंने लॉर्ड एम्टहिलको लिखे पत्रमें[३] बताया है वैसा ही है। एक बात अब निश्चित है, और वह यह कि संघर्ष अभी जारी रहेगा। मैं उसके लिए आतुर हूँ। दुःख मुझे सिर्फ इस बातका है कि मैं ट्रान्सवालमें होनेके बदले यहाँ हूँ। कल समितिकी एक बैठक थी, जिसका मुख्य उद्देश्य नेटालके प्रतिनिधियोंसे मिलना था। लेकिन जहाँ कहीं दक्षिण आफ्रिकाकी चर्चा होगी, ट्रान्सवालका प्रश्न तो आ ही जायेगा। लॉर्ड ऍम्टहिल वहाँ मौजद थे, लेकिन उन्होंने मेरा पत्र नहीं देखा था। मैंने उन्हें कार्यक्रमकी एक रूप-रेखा तैयार कर दी थी, जिसे उन्होंने पूरी तरह स्वीकार कर लिया था। तदनुसार अब वक्तव्यकी प्रतियोंका वितरण होगा; शायद हाउस ऑफ़ कॉमन्सके सदस्योंकी एक बैठक तथा ऐसी ही कुछ और भी बातें होंगी। इसमें पूरे तीन हफ्ते लगेंगे। काम शुरू करनेके पहले मुझे लॉर्ड ऍम्टहिलसे पत्रके एक-न-एक मसविदेपर स्वीकृति लेनी है, फिर उसे भेजकर उसके उत्तरकी राह देखनी है। हो सकता है, इसमें एक कीमती सप्ताह पूरा निकल जाये। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है—भारतकी प्रस्तावित यात्रा। दरअसल तो मुझे भारत बिल्कुल जाना ही नहीं चाहिए। मेरे लिए उपयुक्त स्थान ट्रान्सवाल है, लेकिन जिस कारणसे मैं यहाँ आ गया हूँ वही कारण मेरी भारत-यात्रापर भी लागू होता है। फिर भी, मेरा निश्चित मत है कि अगर मुझे भारत आना ही है तो श्री हाजी हबीबके बिना हगिज नहीं आना चाहिए। वे भारत यात्राका महत्त्व समझते हैं, लेकिन ट्रान्सवालमें उन्हें अपना कोई आवश्यक काम है। वे मुझे भरोसा दिलाते हैं कि उन्होंने संघर्षके आन्तरिक उद्देश्यको समझ लिया है और वे ट्रान्सवालमें भी उसमें पूरा हिस्सा लेना चाहते हैं। तब अगर उन्हें दक्षिण आफ्रिका लौट ही जाना है तो मुझे भी वैसा ही करना पड़ेगा। इसलिए कुछ ऐसा लगता है कि भारत यात्रा नहीं हो सकेगी। लॉर्ड ऍम्टहिल तो (यह बात गोपनीय है) भारतकी प्रस्तावित यात्रापर बहुत जोर देते जान पड़ते हैं। समितिकी कलको बैठकमें सर मंचरजी भी उपस्थित थे। उन्होंने 'साँझ वर्तमान' में प्रकाशित बम्बईकी सभाकी रिपोर्ट देखी। इस वातसे वे बहुत दुःखी थे कि "इकनिया" चन्दा नहीं हुआ। उनका खयाल है कि कुछ ऐसे कार्यकर्ता होने चाहिए जो "इकनिया" या "पैसा" चन्दा[४] इकट्ठा करनेका व्रत ले लें, और वहाँके अखबार इस उगाहीको अधिकसे-अधिक प्रचारित करें। यह, निःसन्देह, शिक्षाका एक सुन्दर तरीका है, लेकिन इसके लिए हमें कार्य-

  1. यहाँ मूल कट-फट गया है, जिससे बीचके नाम पढ़ नहीं जा सके।
  2. यह उपलब्ध नहीं है।
  3. देखिए "पत्र: लॉर्ड ऍस्टहिलको", पृष्ठ ४५९।
  4. गांधीजीने एक-एक चन्दा लेनेका सुझाव दिया था; देखिए "तार: एच॰ एस॰ एल॰ पोलकको ", पृष्ठ ३६६। "पैसा-फंड" के नामसे प्रसिद्ध इस चन्देका विचार मूलत: लोकमान्य तिलकका था। इस समय तक बम्बई प्रान्त में इसने एक संस्थाका रूप धारण कर लिया था। इस कोषका उपयोग स्वदेशी आन्दोलनको बढ़ावा देनेके लिए किया जाता था ।