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३००. पत्र: 'गुजराती पंच' को

[लन्दन]
अक्तूबर ८, १९०९

सेवामें


सम्पादक
'गुजराती पंच'
[बम्बई]


महोदय,

आपने मुझसे अपने दिवाली विशेषांकके लिए कुछ लिख भेजनेका अनुरोध किया है।

मेरा जीवन इस समय एक ही काममें लगा है और वह है ट्रान्सवालवासी दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंकी प्रतिज्ञा पूरी करानेमें मृत्यु-पर्यन्त जूझना। यह प्रतिज्ञा भारतकी प्रतिष्ठाकी रक्षाके निमित्त हिन्दू, मुसलमान, पारसी, पंजाबी, बंगाली, मद्रासी, गुजराती और दूसरे हजारों गरीब भारतीयोंने ली है। ट्रान्सवाल, जो भारतके सामने ऐसा ही है जैसे महासागरके सामने अंजलि, हमारे राष्ट्र-पितामह[१]-जैसे व्यक्तिको भी आने देनेसे इनकार करता है। यहाँके मुट्ठी-भर अशिक्षित व्यापारी, फेरीवाले और मजदूर भारतीय इस अपमानको सहन नहीं कर सकते और न करेंगे। इस अपमानको दूर करानेके लिए और अपने धर्मका, फिर वह चाहे हिन्दू धर्म हो, इस्लाम हो अथवा जरथुस्त्री धर्म हो, पालन करनेके लिए ट्रान्सवालकी तेरह हजार भारतीय आबादीमें से २,५८० भारतीय अबतक जेल भोग आये हैं, बहुत-से अब भी भोग रहे हैं और आगे भोगेंगे। अपनी प्रतिज्ञाका पालन न करें तो हम धर्म-भ्रष्ट हो जायेंगे, यह सब धर्मोंकी शिक्षा है। मुझे यह भी कह देना चाहिए कि यह जेल भयंकर है। वहाँ हमें उचित भोजन नहीं दिया जाता और हमें काफिरोंकी श्रेणीमें रखा जाता है। बहुत-सी अबला कही जानेवाली, लेकिन दरअसल सबल, भारतीय नारियाँ वियोगका दुःख सहती हैं ताकि उनके पति इस संघर्षमें लड़ सकें। कितनी ही अपने बाल-बच्चों सहित भूखी रहती हैं। इस दुःखको सहन करनेवालोंमें गुजराती काफी हैं, क्योंकि इस देशमें गुजरातके हिन्दू और मुसलमान ज्यादा हैं।

अगर यह पत्र छप जाये तो 'गुजराती पंच' के पाठक इस दिवालीके उत्सवपर अपने मनमें यह सोचें कि इस समय उन्हें ट्रान्सवालमें रहनेवाले भारतीयोंके लिए क्या करना है। ट्रान्सवालके भारतीयोंके लिए तो दिवाली, ईद या पटेटीका त्यौहार तभी हो सकता है, जब वे इस लड़ाईमें जीतकर वापस लौटें।

आपका,
मोहनदास करमचन्द गांधी

'ईजिप्टनो उद्धारक अथवा मुस्तफा कामेल पाशानुं जीवन-चरित्र तथा बीजा लेखो' नामकी मूल गुजराती पुस्तकसे।

  1. दादाभाई नौरोजी।