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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चिन्ता नहीं कि जो लोग उन्माद-भरी वर्तमान दौड़में सन्तोष अनुभव कर सकते हैं, उनमें इतना बड़ा सुधार—अगर उसे सुधार कहूँ तो—किया जा सकता है या नहीं। अगर मैं यह समझ लूँ कि यह बात सच है तो मैं इसके अनुसार चलनेमें आनन्द अनुभव करूँगा और इसलिए मैं सब लोगोंके शुरू करने तक न ठहरूँगा। हममें से जो लोग इस तरह सोचते हैं, उन सबको इसके लिए जरूरी कदम उठाना पड़ेगा। अगर हम ठीक रास्तेपर हैं तो बाकी लोग जरूर ही हमारे पीछे आयेंगे। सिद्धान्त मौजूद है; हमें अपना व्यवहार यथासम्भव इससे मिलता-जुलता रखना होगा। इस भीड़में रहते हुए, सम्भव है, हम सभी बुराइयोंको न छोड़ सकें। मैं जब भी रेलगाड़ीमें बैठता हूँ, बसमें जाता हूँ, मैं जानता हूँ कि मैं जो ठीक समझता हूँ, उसके विरुद्ध आचरण कर रहा हूँ। इसके मुझे स्वाभाविक परिणामोंका भय नहीं है। इंग्लैंड आना बुरा है और दक्षिण आफ्रिका और भारतके बीच समुद्री जहाजोंसे आवागमन भी अच्छा नहीं है, आदि। आप और मैं अपने इस जीवनमें इन चीजोंसे बच सकते हैं और सम्भव है, बच जायें; लेकिन खास बात तो अपने सिद्धान्तको सही करनेकी है। आप वहाँ सब तरहके लोग और उन्हें सब दशाओंमें देख रहे होंगे। इसलिए मुझे लगता है कि मैंने मानसिक दृष्टिसे जो कदम उठाया है, और जिसे, प्रगतिशील कदम मानता हूँ मैं उसे आपसे न छुपाऊँ। अगर आप मुझसे सहमत हैं तो क्रान्तिकारियों और दूसरे सब लोगोंसे यह कहना आपका कर्तव्य होगा कि वे जो स्वतन्त्रता चाहते हैं, या उनका खयाल है कि वे चाहते हैं, वह स्वतंत्रता लोगोंको मारनेसे या हिंसा करनेसे नहीं मिलेगी, बल्कि अपना सुधार करने और सच्चे अर्थोंमें भारतीय बननेसे और भारतीय रहनेसे मिलेगी। तब अंग्रेज शासक भी सेवक होंगे, स्वामी नहीं। वे संरक्षक होंगे, सतानेवाले नहीं और वे भारतके सब निवासियोंके साथ बिल्कुल शान्ति तथा मेल-जोलसे रहेंगे। इसलिए भविष्य अंग्रेज जातिके हाथमें नहीं, बल्कि स्वयं भारतीयोंके हाथोंमें है। और अगर उनमें काफी आत्म-त्याग और संयम है तो वे इसी क्षण स्वतन्त्र हो सकते हैं। हम भारतके लोग जब उस सादगीको स्वीकार कर लेंगे, जो बहुत कुछ अब भी हमारी विशेषता है और जो कुछ साल पहले तक हमारी पूरी विशेषता थी, तो तमाम भारतमें अब भी सर्वोत्तम भारतीय और सर्वोत्तम यूरोपीय एक-दूसरेसे मिल-जुलकर रह सकेंगे और एक-दूसरेकी उन्नतिमें सहायता कर सकेंगे। जब तेज चलनेवाली गाड़ियाँ न थीं तब व्यापारी और धर्मोपदेशक देशके एक सिरेसे दूसरे सिरे तक खतरोंको झेलते हुए पैदल जाते थे, आत्मसुख या स्वास्थ्य लाभ के लिए नहीं (यद्यपि ये उनको पैदल यात्राओंसे मिल जाते थे), बल्कि मानव जातिके हितके लिए। तब बनारस और दूसरे तीर्थं पवित्र स्थान थे; लेकिन आज तो वे घृणास्पद बन गये हैं।

आपको याद होगा, आप मुझपर अपने बच्चोंसे गुजरातीमें बोलनेपर नाराज हुआ करते थे। अब मुझे अधिकाधिक विश्वास होता जाता है कि अगर मैं उनसे अंग्रेजीमें बात करनेसे इनकार करता था तो बिल्कुल ठीक ही करता था। कल्पना तो कीजिए, एक गुजराती दूसरे गुजरातीको अंग्रेजीमें पत्र लिखता है! आप यह कहें तो ठीक ही होगा कि वह गलत उच्चारण करता है और व्याकरणकी दृष्टिसे गलत लिखता है। मैं अंग्रेजी लिखने या बोलनेमें जैसी भद्दी गलतियाँ करता हूँ वैसी निश्चय ही गुजरातीमें न करूंगा। मेरा खयाल है, मैं जब-जब किसी भारतीयसे या विदेशीसे अंग्रेजीमें बात करता हूँ, तब एक हद तक उस भाषाको भुलाता हूँ। अगर मैं उस भाषाको अच्छी तरह सीखना चाहता हूँ और अपने कानोंको उसके