इन महापुरुषकी आयु अभी अस्सी वर्ष है। यूरोपमें तो उनके समान पवित्र और धर्मात्मा पुरुष दूसरा दिखाई नहीं देता। वे फौजमें रहे हैं, उन्होंने लाखोंके ऊपर हुक्म चलाया है, लाखोंकी सम्पत्तिका उपभोग किया है और बहुत सुख देखा है। उन-जैसा लेखक आज यूरोपमें दूसरा नहीं है। फिर भी, वे इस समय स्वेच्छासे फकीरकी तरह रहते हैं। वे खुद रूसके अत्याचारी कानूनोंका पूर्ण विरोध करते हैं और दूसरोंको भी उनका विरोध करनेके लिए प्रेरित करते हैं। किन्तु वे शरीर-बलका प्रयोग कभी नहीं करते और दूसरोंको भी उसका प्रयोग करनेसे रोकते हैं। वे आत्मबलपर पूरा भरोसा रखते हैं। उनकी कृतियाँ सारी दुनियामें चावसे पढ़ी जाती हैं। इस देशमें उनकी शिक्षाके अनुसार चलनेवाले बहुत-से लोग दिखाई देते हैं। उनका विश्वास बिलकुल ईश्वरके ही ऊपर है। इसलिए उनके शब्दों से मेरा उत्साह तो बहुत ही बढ़ा है। मैं आशा करता हूँ कि प्रत्येक भारतीय उनके शब्दोंका स्वागत करेगा और उनके अनुसार आचरण करेगा। ऐसा महापुरुष हमारा समर्थक है, यह बहुत ही खुशीकी बात है। उनके पत्रसे भली भाँति प्रकट हो जाता है कि आत्मबल या सत्याग्रह हमारा एकमात्र अवलम्ब है। शिष्टमण्डल भेजना आदि प्रयत्न तो व्यर्थ हैं।
इंडियन ओपिनियन, १३-११-१९०९
३०९. पत्र: 'साउथ आफ्रिका' को[१]
[लन्दन
अक्तूबर १६, १९०९के पूर्व]
आपके जोहानिसबर्ग के संवाददाताने अपनी साप्ताहिक चिट्ठीमें, जिसे आपने अपने अखबारके इसी अंकमें प्रकाशित किया है, नागप्पनके मामलेसे सम्बन्धित तथ्योंको गलत रूपमें पेश करके ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय समाजके प्रति भारी अन्याय किया है। इसके अतिरिक्त उसने अपने पत्रमें यह नहीं कहा कि ब्रिटिश भारतीयोंके अतिरिक्त भी बहुत से लोगोंने, जिन्होंने
- ↑ यह " साउथ आफ्रिका: फिर भूल-सुधार" शीर्षकसे छपा था। इसके साथ वह खरीता भी छपा था, जिसका उत्तर गांधीजीने था; देखिए परिशिष्ट ३०।