पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 9.pdf/५३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

३२४. लन्दन[१]

[अक्तूबर २६, १९०९ के बाद]

सभ्यता या बर्बरता?

इन दिनों यहाँके अखबारोंमें यहाँके खाद्य पदार्थोंपर टीका-टिप्पणी निकलती रहती है। उसमें यह बताया जाता है कि प्राय: सभी तैयार खाद्य पदार्थोंमें मिलावट की जाती है। बहुत-से खाद्य पदार्थोंमें तैंतीस प्रतिशत मिलावट होती है और कभी-कभी वह मिलावट नुकसानदेह होती है। जेली आदिके बड़े-बड़े कारखानोंमें निपुण रासायनिकोंको रखा जाता है, ताकि [उनके रसायन-कौशलकी बदौलत] घटिया खाद्य पदार्थ भी देखनेमें अच्छे माल-जैसे ही लगें। यह कार्य रसायन मिलाकर किया जाता है और इससे पैसोंका फायदा होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि खाद्य-निर्माताओंकी दृष्टि केवल अपने लाभपर ही रहती है; उस लाभको प्राप्त करने में लोगोंको क्या हानि पहुँचती है, वे इस बातका ध्यान रखते ही नहीं। ये ही लोग इस प्रकार अन्यायसे कमाये हुए पैसेमें से कुछ पैसा लोकोपयोगी कहलानेवाले कार्यों में दे देते हैं और वाहवाही लूटते हैं। उन्हें भला और नीतिवान माना जाता है। मतलब यह है कि इस सभ्यतामें अनीति नीति बन बैठी है। ज्यादातर तैयार मालमें चर्बी तो काममें लाई ही जाती है। मिसालके तौरपर, विलायती चावलोंको साफ करने और चमकीला बनानेके लिए चर्बीका इस्तेमाल किया जाता है। यह बात भयंकर है, फिर भी सही है। इससे हिन्दुओं और मुसलमानों दोनोंका धर्म भ्रष्ट होता है। इसलिए उपाय तो यह है कि पश्चिमकी कोई भी चीज इस्तेमाल न की जाये। तैयार खाद्य तो काममें लाया ही न जाये।

जापानका वीर योद्धा

स्थानीय अखबारोंमें यह खबर छपी है कि जापानके वीर पुरुष माक्विस ईटो[२] एक कोरियाईकी रिवाल्वरकी गोलीसे मारे गये, कोरिया जापानके निकटका देश है। जिस कार अंग्रेज मिस्र और भारतमें शासन करते हैं उसी प्रकार जापानी कोरियामें करते हैं। अंग्रेजोंका जितना अधिकार भारत या मिस्रमें है, जापानका उतना ही अधिकार कोरियामें है। जापान कुछ कोरियाकी भलाईके लिए वहाँ नहीं गया है, बल्कि उसने इसलिए वहाँ हस्तक्षेप किया है कि कोरिया दुर्बल राष्ट्र माना गया है और यदि उसपर रूस या चीनका अधिकार हो तो जापानको हानि पहुँचेगी। यह कोरियाके लोगोंको कुछ पसन्द नहीं आया। कोरियाके लोग जापानकी ओर सदैव द्वेषकी दृष्टिसे देखते आये हैं। ईटोपर इससे पहले भी दो बार वार किया गया था। किन्तु जापान, जिसने एक बार रूसका खून चख लिया है, कोरियासे जल्दी नहीं हटेगा। सत्ताका मद

  1. यह ८-१-१९१० के इंडियन ओपिनियन में इस प्रस्तावनाके साथ प्रकाशित हुआ था कि गांधीजीने ये अनुच्छेद अपनी लन्दनकी विभिन्न चिट्ठियों में लिखे थे, लेकिन स्थानकी कमी के कारण उन्हें अबतक नहीं छापा गया था।
  2. प्रिंस हिरोबूमी ईटी (१८४१-१९०९); जापानी राजनीतिज्ञ और सुधारक; सन् १८८६ से लेकर १९०१ तक चार बार प्रधान मन्त्री हुए। वे १९०५ में कोरियामें रेजिडेन्ट जनरल नियुक्त किये गये और १९०९ में जापानकी प्रिवी कौंसिलके अध्यक्ष हुए। उक्त कोरियाईने, जब वे हारबिनकी यात्रापर थे, उनकी हत्या कर दी।