पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 9.pdf/५४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५०३
लन्दन

यह बात स्पेंसरकी शिक्षाओं में नहीं है। उनका एक अखबार 'इंडियन सोशियॉलॉजिस्ट कहलाता है। क्या भारतीय युवक स्पेंसरकी शिक्षाओंको ग्रहण करके अपने प्राचीन गाँवों और अपने प्रेमपूरित घरोंमें विष फैलाना चाहते हैं?

किसीके अपनी पुरानी जीवन-व्यवस्था माँगने और दूसरोंकी खोजी हुई नई वस्तु माँगनेमें बड़ा अन्तर है। विजित लोगोंके अपनी प्राचीन राज्य-व्यवस्था वापस माँगने और विजेताओंकी राज्य व्यवस्था माँगनेमें अन्तर है। मान लें कि एक भारतीय कहता है: "भारत सदा गोरोंसे और उनके कामोंसे अलग रहता तो ठीक होता। हर चीजमें कुछ-न-कुछ कमी तो होती ही है सो हमें अपनी ही चीज पसन्द है। हमारी पुरानी राज्य-व्यवस्थामें रजवाड़ोंमें लड़ाइयाँ होतीं, परन्तु हमें अस्पतालोंमें मरनेसे लड़ाईमें मरना अधिक पसन्द है। पुरानी व्यवस्था अत्याचार होता है। किन्तु एक ही राजा, जिसे मैं शायद ही कभी देख सकूँ, इन सैकड़ों राजाओंसे, जो मेरे बेटों और मेरी रोटीपर अधिकार रखना चाहते हैं, अच्छा है। हमारी व्यवस्थामें, सम्भव है, महामारी फैलती, किन्तु सदा मृत्युके भयसे मृतवत् बने रहनेकी अपेक्षामें हमें महामारीसे एक ही झपाटमें मर जाना अधिक पसन्द है। हम लोग अपने धर्मके विरोधको लेकर कभी-कभी आपसमें लड़ते, परन्तु धर्महीन शान्तिकी अपेक्षा धर्मकी रक्षा करते हुए अशान्ति भोगना हमें ज्यादा पसन्द है। जिन्दगी छोटी है, हर आदमीको किसी तरह जीना है, कहीं-न-कहीं मरना तो है ही। आपकी जीवन पद्धतिके अनुसार आपके किसानोंको जो शरीर सुख प्राप्त है उससे हमारी जीवन पद्धतिका सुख कम नहीं है। हमारी पद्धति आपको अच्छी न लगे तो हमारी आपसे कोई जबरदस्ती नहीं। आप चले जायें और हमारी चीज हमारे पास रहने दें।"

कोई भारतीय ऊपरके अनुसार कहे तो मैं उसे भारतके लिए स्वराज्य माँगनेवाला मानूँगा। ऐसा भारतीय सच्चा भारतीय माना जायेगा । और मुझे लगता है कि उसके तर्कका खण्डन करना कठिन होगा। किन्तु मैंने भारतके लिए स्वराज्यके समर्थकोंके जो लेख पढ़े उनमें वे लोग यही लिखते रहते हैं: "हमें बैलट बॉक्स (मतदान-पेटी) दो, हमें अधिकार दो, हमें जजकी टोपी दो। प्रधान मन्त्री बनना हमारा स्वाभाविक अधिकार है। हमें बजट पेश करनेका हक है। यदि मुझे 'डेली मेल' अखबारका सम्पादकत्व प्राप्त नहीं होता तो मुझे बेचैनी होती है।" इस आशयकी बातें भारतमें स्वराज्य माँगनेवाले करते हैं। जो ऐसा कहते हैं, उनको उत्तर देना कठिन नहीं। जिसे बहुत सहानुभूति है वह व्यक्ति भी कह सकता है: "भले भारतीय, तुम बात तो ठीक कहते हो, किन्तु तुम जो चीज माँगते हो वह तो हमने बनाई है। यदि यह चीज उतनी अच्छी है जितनी तुम मानते हो, तो इसके सम्बन्धमें तुमने सुना भी तो हमारी ही कृपासे है। यदि ये अधिकार स्वाभाविक हैं तो हमारे बताये बिना तुम्हें अपने ये अधिकार सुझते भी नहीं। मताधिकार ऐसी बड़ी बात हो (जिसके सम्बन्धमें स्वयं मुझे सन्देह है), तो हमें, जो उसको सिखानेवाले हैं, कुछ सत्ता होनी चाहिए।" जब भारतीय बड़े गर्वसे मताधिकार माँगते हैं तब मुझे उलटी बात याद आती है। यह तो ऐसी बात हुई जैसे मैं तिब्बतमें जाकर लामासे महात्मा बननेका परवाना माँगूँ। यदि मैं लामासे उक्त माँग करूँ तो वह मुझसे कहेगा: "हमारी पद्धति खरी या खोटी, ग्राह्य या अग्राह्य—जैसी भी है, हमारी है। यदि आपका ज्ञान हमसे उच्च है तो 'पद्धतिसे आपको कोई काम नहीं।