श्री चेस्टरटनने ऊपर जो विचार व्यक्त किये हैं, उनको सम्मुख रखकर प्रत्येक भारतीयको सोचना है कि भारतको क्या माँगना उचित है। भारतकी जनता किस प्रकार सुखी होगी? हम भारतकी जनताके नामपर अपने स्वार्थकी पूर्ति कराना तो नहीं चाहते? भारतकी जनताने जिस वस्तुकी सहस्त्रों वर्षसे बड़े यत्नसे रक्षा की है, उसको हम एक क्षणमें उखाड़कर फेंक देना तो नहीं चाहते? श्री चेस्टरटनके लेखोंको पढ़कर मेरे मनमें तो ये सब विचार उत्पन्न हुए हैं, इसलिए इनको 'इंडियन ओपिनियन' के पाठकोंके सम्मुख रखता हूँ।
इंडियन ओपिनियन, ८-१-१९१०
३२५. पत्र: लॉर्ड ऍम्टहिलको
[लन्दन]
अक्तूबर २८, १९०९
मद्रास प्रेसीडेन्सीमें जगह-जगह जो सभाएँ हुई हैं,[१] उनके बारेमें लॉर्ड क्रू के निजी सचिवको एक पत्र भेजा गया है। उसकी एक नकल मैं इस पत्रके साथ भेज रहा हूँ।
मैं यह भी कह दूँ कि जोहानिसबर्गसे जो तार मिले हैं, उनमें कहा गया है कि ट्रान्सवालमें अनाक्रामक प्रतिरोधियोंके विरुद्ध फिर सरगर्म कार्रवाइयाँ शुरू कर दी गई हैं। इक्कीस व्यक्तियों को गिरफ्तारकर तीन-तीन महीनेकी सजायें दे दी गई हैं। इनमें ब्रिटिश भारतीय संघ (ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन) के कार्यवाहक अध्यक्ष भी हैं। तीन पढ़े-लिखे
- ↑ देखिए पिछला शीर्षक।