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पत्र: जी॰ ए॰ नटेसनको

संघर्ष मानेंगे। मुझे खुल्लमखुल्ला यह कहने में भी कोई झिझक नहीं हुई है कि यह संघर्ष इस युगका सबसे बड़ा आन्दोलन है, क्योंकि इसका उद्देश्य भी शुद्ध है और इसके तरीके भी। हो सकता है, मेरा यह खयाल गलत हो। हमारे जो देशवासी ट्रान्सवालमें रहते हैं वे इसलिए लड़ रहे हैं कि सुसंस्कृत भारतीयोंको ट्रान्सवालमें आनेका वैसा ही अधिकार प्राप्त हो, जैसा यूरोपीयोंको प्राप्त है। इस संघर्षमें जो लोग लड़ रहे हैं उन्हें अपना कोई निजी स्वार्थ सिद्ध नहीं करना है। जिस अधिकारका यहाँ उल्लेख है (और जो उपनिवेशीय कानूनमें पहली बार छीना गया है), उसके बहाल किये जानेके बाद किसीको कोई भौतिक लाभ भी नहीं होना है। भारतके जो सपूत ट्रान्सवालमें हैं, वे यह दिखा रहे हैं कि वे एक विशुद्ध आदर्शके लिए लड़ सकते है। राहत पानेके लिए उन्होंने जिन साधनोंको अपनाया है, वे भी उतने ही शुद्ध हैं। इन भारतीयोंने हर तरहकी हिंसा सर्वथा त्याग दी है। उनका विश्वास है कि कष्ट-सहन स्थायी सुधार प्राप्त करनेका एकमात्र सच्चा और प्रभावकारी साधन है। वे घृणाका सामना प्रेमसे करने और उसे प्रेमसे ही जीतनेका प्रयत्न करते हैं। वे पशुबल या शरीर-बलका मुकाबला आत्मबलसे करते हैं। वे मानते हैं कि लौकिक सत्ता या विधानके प्रति वफादारी ईश्वर और उसके विधानके प्रति वफादारीकी तुलनामें गौण हैं। यह सम्भव है कि उनकी अन्तरात्मा ईश्वरके विधानकी व्याख्या करनेमें भूल कर जाये। इसीलिए वे जिन मानवीय कानूनोंको ईश्वरके नित्य कानूनोंके विरुद्ध पाते हैं उनका मुकाबला करते हैं या उनकी अवहेलना करते हैं। इसके लिए उन मानवीय कानूनोंमें जो सजाएँ बताई गई हैं उन्हें वे चुपचाप सहन करते हैं। साथ ही उनका विश्वास यह है कि उनकी स्थिति समय पाकर मनुष्यकी सहज सत्प्रकृतिसे सुधर जायेगी। अगर वे गलती कर रहे हैं तो वे ही तकलीफ पाते हैं और प्रतिष्ठित व्यवस्था ज्योंकी-त्यों रह जाती है। इस काम में २,५०० से ज्यादा भारतीय ऐसी कैदकी सजा भुगत चुके हैं, जिसमें भयंकर कष्ट झेलने पड़ते हैं। यह संख्या यहाँकी इस वक्तकी भारतीय आबादीकी करीब आधी या यहाँकी सम्भावित भारतीय आबादीके पाँचवें भागके बराबर है। इनमें से कुछ लोग एकाधिक बार जेल गये हैं, कितने ही परिवार गरीब हो गये हैं। कुछ व्यापारियोंने पौरुषका त्याग करनेकी अपेक्षा कष्ट सहना स्वीकार किया है। दक्षिण आफ्रिकामें संयोगसे हिन्दू-मुस्लिम समस्या हल हो गई है। हम यहाँ अनुभव करते हैं कि दोनों एक-दूसरेके बिना नहीं रह सकते। यहाँ मुसलमान, पारसी और हिन्दू—सूबोंके खयालसे कहें तो—बंगाली, मद्रासी, पंजाबी, अफगान और बम्बइये—सब कन्धेसे-कन्धा मिलाकर खड़े हैं।

मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह संघर्ष ऐसा है जिसकी ओर कांग्रेस अगर पूरा ध्यान न दे सके तो उसे ज्यादासे-ज्यादा ध्यान तो देना ही चाहिए। अगर अशिष्टता न समझी जाये तो मैं यह बताना चाहूँगा कि इसमें और कांग्रेस कार्यक्रमके दूसरे विषयोंमें क्या अन्तर है। कांग्रेस कार्यक्रमके दूसरे विषयों में कानूनों या नीतिका जो विरोध किया जाता है, उसमें कोई भौतिक हानि उठानेकी बात नहीं आती। कांग्रेसका काम किसी मामले में विचार प्रकट करने तक ही सीमित है, उसे कर्मका बल पहुँचाया जाता नहीं। ट्रान्सवालके मामले में जो गलत कानून और नीति है, हम उसकी अवज्ञा करते हैं, इसलिए अन्तरात्माकी आवाजपर और सोच-समझकर भौतिक और शारीरिक हानि उठाते हैं। हम अपने विचारके अनुसार कार्रवाई करते हैं। जो विचार यहाँ दिया गया है, अगर वह ठीक है तो मुझे यह कहनेकी