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पत्र: लॉर्ड ऍम्टहिलको

जो-कुछ देखा है उसे बताना यद्यपि आवश्यक नहीं है, फिर भी उसे बतानेकी मैं घृष्टता कर रहा हूँ।

मैंने यहाँ सब विचारोंके भारतीयोंसे मिलनेका खास खयाल रखा है। चूँकि मैं सभी तरहकी हिंसाके विरुद्ध हूँ, इसलिए मैंने उन लोगोंसे खास तौरसे मिलनेकी कोशिश की है। जो गर्मदली कहे जाते हैं लेकिन जिन्हें हिंसाकारी दलके लोग कहना ज्यादा ठीक होगा। ऐसा मैंने इसलिए किया है कि अगर सम्भव हो तो उन्हें यह विश्वास दिला सकूँ कि उनके तरीके गलत हैं। मैंने यह देखा है कि इस दलके कुछ सदस्य सच्चे लोग हैं, जिनमें ऊँचे दर्जेकी नैतिकता है, भारी बौद्धिक क्षमता है, और उच्च कोटिका आत्मत्याग है। यहाँके भारतीय युवकोंपर उनका प्रभाव है, इस बारेमें कोई सन्देह नहीं। वे भी इन युवकोंको अपने विश्वासोंसे प्रभावित करनेमें कोई कसर नहीं रखते। इनमें से एक सज्जन मेरे पास आये थे। वे मुझे यह विश्वास दिलाना चाहते थे कि मेरा तरीका गलत है और उनके खयालके अनुसार हम जिन अन्यायोंसे पीड़ित हैं, उन्हें सिर्फ छुपी या खुली अथवा दोनों तरहकी हिंसाका प्रयोग करके ही दूर करना सम्भव है।

इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रीय भावना जागृत हो चुकी है। लेकिन ज्यादातर लोगों में वह अपरिमार्जितरूपमें मौजूद है। और उनमें तदनुरूप आत्मत्यागकी भावना नहीं है। मुझे हर जगह यह दिखाई दिया है कि लोग ब्रिटिश राजसे अधीर हो उठे हैं। कुछ लोगोंको पूरी जातिसे बड़ी तीव्र घृणा है। अंग्रेज राजनयिकोंके प्रति अविश्वास तो लगभग सभी के मनमें स्पष्ट रूपसे व्याप्त है। माना यह जाता है कि वे निःस्वार्थ भावसे कुछ करते ही नहीं। जो हिंसाके विरुद्ध हैं, वे भी सिर्फ वक्त के विचारसे वे उसे नापसन्द नहीं करते। लेकिन वे इतने कायर या स्वार्थी हैं कि अपनी रायको खुलेआम मंजूर नहीं कर सकते। कुछ लोगोंका खयाल है कि अभी हिंसाका समय नहीं आया है। मुझे लगभग ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जिसका यह विश्वास हो कि भारत हिंसाके बिना कभी स्वतन्त्र हो सकता है।

मेरे खयालसे दमन बेकार होगा। साथ ही मुझे लगता है कि अंग्रेज शासक समयपर पर्याप्त अधिकार न देंगे। ऐसा लगता है कि व्यावसायिक स्वार्थने ब्रिटिश लोगोंको अन्धा बना रखा है। इसमें दोष आदमियोंका नहीं, पद्धतिका है। इस पद्धतिका प्रतीक वर्तमान सभ्यता है, जिसका यहाँके और भारतके लोगोंपर विनाशकारी प्रभाव हुआ है। भारतका शोषण विदेशी पूँजी-पतियोंके स्वार्थके लिए किया जाता है, और केवल इसी कारण भारत अतिरिक्त कष्ट पाता है। मेरी नम्र सम्मतिमें इसका सच्चा उपाय यह है कि इंग्लैंड आधुनिक सम्यताका, जो स्वार्थ और भौतिकताकी भावनासे भरी होनेकी वजहसे उद्देश्यहीन और निरर्थक है और जो ईसाइयत के विरुद्ध है, परित्याग कर दे। लेकिन यह एक दुराशा है। तब यह भी सम्भव हो सकता है कि भारतके ब्रिटिश शासक कमसे-कम भारतीयोंकी तरह व्यवहार करें और उनपर आधुनिक सभ्यताको तो न थोपें। रेलें, मशीनें और उनके साथ बढ़ी हुई आरामतलबीकी आदतें यूरोपीयोंकी भांति ही भारतीयोंके लिए भी दासताके सच्चे चिह्न हैं। इसलिए शासकोंसे मेरा कोई झगड़ा नहीं है। हाँ उनके तरीकोंसे मेरा पूरा विरोध है। मैं पहले मानता था कि लॉर्ड मैकॉलेने अपनी शिक्षा सम्बन्धी रिपोर्ट लिखकर भारतका हित-साधन किया है, लेकिन अब नहीं मानता। मेरा खयाल यह भी है कि ब्रिटेनने अपने अधीनस्थ देशोंको जो शान्ति सुव्यवस्था दी है, उसका बहुत ज्यादा

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