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शिष्टमण्डलकी आखिरी चिट्ठी

शिष्टमण्डलका उत्तर

इस पत्रका उत्तर शिष्टमण्डलने नीचे लिखे अनुसार दिया है:[१]

टिप्पणी

अब सब भारतीयोंको समझ लेना चाहिए कि यह लड़ाई किस लिए लड़ी जा रही हैं और कितनी बड़ी है। हम सारे भारतका बोझ उठा रहे हैं। ऐसा करना हमारा कर्तव्य है। अगर हम यह मंजूर कर लें कि यूरोपीय और हम बराबर नहीं हैं तो फिर स्मट्स, हम जो कुछ माँगें, देनेके लिए तैयार हैं। लेकिन वे कानूनमें यह बात जरूर रखना चाहते हैं कि हम गोरोंके बराबर नहीं हैं। उन्होंने ब्रिटिश नीति और मानवीय सिद्धान्तोंकी जड़पर कुल्हाड़ी मारी है। हमने यह चोट अपने ऊपर झेल ली है, क्योंकि हम इन सिद्धान्तोंकी रक्षा करना चाहते हैं। अगर इस मूलपर कुल्हाड़ी लगती है तो ब्रिटिश राज्य व्यर्थ है और ट्रान्सवालमें या दक्षिण आफ्रिकामें ब्रिटिश भारतीयोंका रहना गुलामी है। लेकिन हमें कोई भी हमारी मर्जीके बिना गुलाम नहीं बना सकता। अगर हम उसके सिद्धान्तोंको न मानें, उसकी आज्ञाका पालन न करें तो हम गुलाम नहीं रहते। पहले जमानेमें लोग मार-मारकर गुलाम बनाये जाते थे, अब फुसलाकर गुलाम बनाये जाते हैं। पहला जमाना अच्छा था, क्योंकि उसमें सब सड़ांध सतहपर तैर आती थी। इससे लोग देख सकते थे और उससे उन्हें घृणा हो जाती थी। गुलाम भी जब कष्ट सहन न होता तो भाग जाते थे या मर जाते थे। अब हमें लालच देकर गुलामीमें फँसाया जाता है और हम इस गुलामीको मंजूर कर लेते हैं, और जानते भी नहीं कि यह गुलामी है। हम दक्षिण आफ्रिकामें ऐसी दशामें रहना नहीं चाहते, इसलिए सत्याग्रहकी लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकार यह बात जानती है कि अगर हम उसके गुलाम बनानेके प्रयत्नोंको असफल कर देंगे तो हमारे लिए दूसरी बातें आसान हो जायेंगी। अगर हम इस बातको न जानते हों तो हमें इसे अब जानना चाहिए। हम सच्चे मताधिकारकी लड़ाई लड़ रहे हैं। हम यह दिखा रहे हैं कि एक राष्ट्र बननेकी आकांक्षा रखनेवाले लोगोंमें जो संभावनायें और भावना होनी चाहिए, वह हममें है।

इसके अतिरिक्त हम केवल ट्रान्सवाल [सरकार] से ही नहीं लड़ रहे हैं; बल्कि साम्राज्य सरकारसे भी लड़ रहे हैं, क्योंकि उसीने यह कानून[२] मंजूर किया है। "कानूनमें बराबरीके हककी माँग छोड़ो तो तुम्हें मुँहमाँगा मिलेगा," इसका अर्थ तो यह है कि "तुम गुलामीका पट्टा लिख दो तो तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार किया जायेगा।" यह तो ऐसी ही बात हुई, मानो जर्मन अंग्रेजोंसे कहें: "तुम हमारे आधीन हो जाओ तो तुमसे अच्छा व्यवहार किया जायेगा।" अंग्रेज इसका उत्तर यह देंगे: "हमें तुम्हारे अच्छे व्यवहारकी जरूरत नहीं है। हमें अपनी स्वतन्त्रताकी रक्षा करनेमें दुःख भी हो तो वह भी हमारे लिए सुख है।" ऐसा ही उत्तर हम तीन बरससे दे रहे हैं और आशा है, सदा देते भी रहेंगे। यह लड़ाई प्रवासके सम्बन्धमें कानूनमें बराबरीका हक लेनेके लिए लड़ी जा रही है। उस हकको लेनेके लिए फकीरी तो बहुत लोगोंने ली है और उसे लेनेके लिए हम प्राण भी दे देंगे। मैं यह माने लेता हूँ कि जो शूर रणमें उतरे हैं वे कभी पीछे नहीं हटेंगे। प्रत्येक भारतीयको स्वयं याद

  1. इसके पाठके लिए देखिए "पत्र: उपनिवेश उपमन्त्रीको", पृष्ठ ५२४-२५।
  2. सन् १९०७ का एशियाई पंजीयन अधिनियम, क्र॰ २।