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प्रार्थनापत्र : उपनिवेश मन्त्रीको

४७. निम्न अंश स्थानीय सरकारको १९०७ में दिये गये सामान्य प्रार्थनापत्रका' है:

जो विषम स्थिति उत्पन्न हो गई है, उसका प्रतिकार केवल इस अधिनियमको पूरी तरह
रद करने से ही हो सकता है, उससे कम किसी कार्रवाईसे नहीं । हमारी विनीत सम्मतिमें
अधिनियम हमारे आत्मसम्मानको गिराने तथा हमारे धर्मोपर प्रहार करनेवाला है, और
इसको खतरनाक मुजरिमोंके सम्बन्धमें ही लागू करनेका खयाल किया जा सकता है ।
इसके अतिरिक्त हमने जो गम्भीर शपथ ली है उसके कारण हमारे लिए, साम्राज्यके सच्चे
नागरिकों और ईश्वरसे भय करनेवाले लोगोंके रूपमें, अधिनियमके विधानके सम्मुख न
झुकना आवश्यक हो गया है, भले ही हमें इसके परिणाम कुछ भी क्यों न भुगतने पड़ें;
और जो, हम समझते हैं, जेल, निर्वासन और हमारी जायदादकी बरबादी या जब्ती या
इनमेंसे कोई भी हो सकता है ।

४८. इस लक्ष्यको प्राप्तिके लिए ३५० से अधिक भारतीयोंने कैदको सजा भोगी है । अनेक लोगोंने अपना माल-असबाब नीलाम होने दिया है । कुछ लोगोंने अपनी अन्तरात्माकी आवाजको दबाने के बजाय सरकारी अथवा निजी नौकरियोंसे बर्खास्तगी मंजूर की है और लगभग सभीने माली नुकसान उठाया है । कुछ तो सचमुच दरिद्र हो गये हैं ।

४९. प्रार्थी संघने अपने प्रति किये गये घोर अन्यायकी ओर ध्यान आकर्षित करनेकी यह विधि इसलिए चुनो है कि यह उनके ब्रिटिश प्रजाजनके दर्जे और मनुष्योचित आत्मसम्मान से अत्यधिक मेल खाती है ।

५०. इस आन्दोलनको अनाक्रामक प्रतिरोध (पैसिव रेजिस्टेन्स) का नाम अधिक अच्छे नामके अभाव में दिया गया है । किन्तु वह वास्तव में उस कानूनका सविनय विरोध है जो ब्रिटिश भारतीयोंको बहुत नापसन्द है और जिसे बनाने में उनका कोई हाथ नहीं है ।

५१. नम्र निवेदन है कि प्रतिरोध शब्दसे सामान्यतः जो अर्थ समझा जाता है, उस अर्थकी कोई कल्पना उस जन-समुदायके प्रतिरोधसे नहीं मिलती जो व्यक्तिगत कष्ट उठा रहा है ।

५२. प्रार्थी संघने अनुभवसे जाना है कि कमसे कम ब्रिटिश साम्राज्यमें सम्राट्के प्रजाजनोंकी शिकायतें वास्तव में केवल तभी दूर होती हैं, जब वे यह दिखा देते हैं कि वे राहत प्राप्त करने के उद्देश्यसे कष्ट उठाने के लिए तैयार हैं ।

५३. बचपन से ही ब्रिटिश भारतीयोंको यह सिखाया गया है कि ब्रिटिश संविधानमें कानूनकी दृष्टि से सब प्रजाजन समान हैं, किन्तु जब वे इस उपनिवेशमें समानता माँगते हैं, तो उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है या वे धृष्ट माने जाते हैं ।

५४. ब्रिटिश भारतीयोंको मताधिकार प्राप्त नहीं है और वे, लोगोंके वर्तमान मनोभावोंको देखते हुए, कोई मताधिकार चाहते भी नहीं । इसलिए उनके सामने केवल यही उपाय रह जाता है कि वे शासकोंसे प्रार्थना करें और अपनी सचाई बताने के उद्देश्यसे अपने विचारोंके लिए कष्ट भोगनेको तैयार रहें ।

५५. प्रार्थी संघ भारतीय भावनाको जहाँतक समझ सका है, अधिकतर भारतीय दृढ़-प्रतिज्ञ हैं कि जबतक उनके द्वारा माँगा गया साधारण न्याय प्राप्त नहीं हो जाता, तबतक वे

१. देखिए खण्ड ७, पृष्ठ २३८ ।

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