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३५३. पत्र: उपनिवेश-उपमन्त्रीको

[लन्दन]
नवम्बर १२, १९०९

महोदय,

मुझे आपका इसी ९ तारीखका पत्र पानेका सम्मान प्राप्त हुआ। श्री पोलकके तारमें जो-कुछ बताया गया है, परिस्थितियोंकी उससे अधिक जानकारी मुझे नहीं है। परन्तु मुझे श्री चुन्नीलाल पानाचन्दके निर्वासनकी जानकारी है। वे अंग्रेजी जानते हैं, इसलिए नेटाल तथा केप कालोनीमें प्रवेश करनेके अधिकारी हैं। साथ ही वे डेलागोआ-चेके अधिवासी भी हैं। फिर भी वे निर्वासित करके भारतको भेज दिये गये हैं। उनका मामला काफी प्रसिद्ध है।

मैंने स्वयं एक दूसरे मामले में पैरवी की थी। यह मामला श्री शेलतका था।[१] अगर उन्होंने मुझे खबर न दी होती और मैंने मामला ठीक करानेके लिए मजिस्ट्रेटके सामने पैरवी न की होती तो वे भारतको निर्वासित कर दिये गये होते। इस तरहके बहुत से मामले निश्चय ही पेश किये जा सकते हैं। कानूनके निर्वासन-सम्बन्धी खण्डसे बहुत कष्ट होता है, यह उस खण्डके अमलका मुझे जो अनुभव है उसके आधारपर भली-भाँति सिद्ध किया जा सकता है।

आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रतिकी फोटो-नकल (एस० एन० ५१७८) और कलोनियल ऑफ़िस रेकर्ड्स; २९१/१४२ से।

३५४. पत्र: भारतीय अखबारोंको[२]

[लन्दन
नवम्बर १२, १९०९]

महोदय,

मेरे साथी श्री हाजी हबीबने और मैंने ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंके संघर्षके बारेमें एक विवरण निकाला है। मुझे भरोसा है, आप उसका अधिकसे-अधिक प्रचार करेंगे। यह भीषण संघर्ष चल तो रहा है ट्रान्सवालमें, लेकिन इस तथ्यको कोई भी बहुत आसानीसे देख सकता है कि यह मामला पूरे भारतके लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ट्रान्सवालकी सरकारने यह बात बिलकुल साफ कर दी है, सो इस तरह कि उसने जोरदार शब्दोंमें यह घोषित

  1. देखिये "नायडू और अन्य लोगोंका मुकदमा, पृष्ठ २५१-५२ और "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी" पृष्ठ २६४।
  2. यह "ट्रान्सवाल में भारतीयोंका संघर्ष" शीर्षकसे छपा था; देखिए "पत्र: अखबारोंको", पृष्ठ ५२०-२४।