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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कर दिया है कि हम जिस सिद्धान्तके लिए लड़ रहे हैं, सरकार उसके बारेमें हमारी माँग माननेके लिए तैयार नहीं है, यद्यपि उस सिद्धान्तको मान लेनेपर मिलनेवाले हक वह हमें दे देगी। अतः, यह संघर्ष चलता रहेगा। हम जिस सिद्धान्तके लिए लड़ रहे हैं, उसकी उससे अधिक अच्छी और कोई व्याख्या नहीं हो सकती जो स्वयं ट्रान्सवाल सरकारने की है। लॉर्ड क्रू ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय शिष्टमण्डलको भेजे गये अपने जवाबमें कहते हैं:

लॉर्ड महोदयने आपको बता दिया था कि भारतीयोंको प्रवेशके अधिकारके या दूसरी बातोंके सम्बन्धमें यूरोपीयोंकी बराबरी की स्थितिमें रखा जाना चाहिए—श्री स्मट्स आपकी इस माँगको मंजूर करनेमें असमर्थ हैं।[१]

"या दूसरी बातोंके सम्बन्धमें"—इस वाक्यांशपर विचार करनेकी बात तो फिलहाल छोड़ी जा सकती है। हमने जो-कुछ माँगा है, वह इतना ही है कि हमें प्रवेशके मामले में कानूनी तौरपर यूरोपीयोंके बराबर हक दिया जाये। स्मरण रहे कि आज हम इस बराबरीके हककी बहालीके लिए लड़ रहे हैं। यह हक इस कानूनके पास होनेतक—बोअरोंके शासनमें और अंग्रेजोंका कब्जा होनेके बाद भी, अर्थात्, सन् १९०६ के अन्ततक—हमें हासिल था। जो सिद्धान्त ट्रान्सवाल-सरकारने स्थापित किया है और साम्राज्य सरकारने जिसपर स्वीकृति दी है, उस सिद्धान्तसे साम्राज्यकी जड़पर ही कुठाराघात होता है। लॉर्ड ऍम्टहिल, जिन्होंने इस कार्यको अपना कार्य बना लिया है, कहते हैं [२]

यह मामला हमारे प्रजातीय सम्मानको ठेस पहुँचानेवाला है, और सारे साम्राज्यको एकताको प्रभावित करता है; इसलिए इसका सम्बन्ध साम्राज्यके हर हिस्सेसे है। इसके अलावा, यह निश्चित है कि अगर साम्राज्यके इस केन्द्र स्थलमें सिद्धान्तको छोड़कर चलनेकी किसी भी बातको स्वीकार किया गया या उसकी उपेक्षाकी गई तो उससे बाहर भी और भीतर भी दूसरे स्थानोंके लिए एक बुरी मिसाल कायम होती है, और तब सारी व्यवस्थाको कोई बड़ा आघात लगने के बाद ही इस नैतिक पतनको रोकना सम्भव होगा।

लॉर्ड महोदय आगे फिर कहते हैं:

किसी सिद्धान्तमें अमल करते वक्त देश और कालकी जरूरतके मुताबिक फेरफार किया जा सकता है; लेकिन अगर सिद्धान्तको ही उठाकर ताकपर रख दें तो अमलपर नियन्त्रण रखनेका कोई साधन नहीं रह जाता।

हमारी जो स्थिति है, उसे इससे अधिक स्पष्ट शब्दोंमें नहीं कह सकता। अगर ट्रान्सवाल सरकारका सिद्धान्त सही है तो भारतकी जनता साम्राज्यमें साझेदार नहीं रह जाती; और इसी खतरनाक, अनैतिक और घातक सिद्धान्तका विरोध करनेके लिए हम ट्रान्सवालमें लड़ रहे हैं। भारतीय, जिनमें आंग्ल-भारतीय भी शामिल हैं, इस राष्ट्रीय संघर्षमें कैसे मदद दे सकते हैं? स्मरण रहे कि हम इसके निराकरणके लिए सक्रिय कदम भी उठा चुके हैं; अर्थात् हम जिस कानूनको अपनी अन्तरात्माके और, धर्म शब्दका उत्कृष्ट

  1. डोक-कृत गांधीजीकी जीवनीकी प्रस्ताक्ना लॉर्ड ऍम्टहिलने लिखी थी। ये अनुच्छेद उसीसे लिये गये हैं। देखिए परिशिष्ट १८ भी।
  2. डोक-कृत गांधीजीकी जीवनीकी प्रस्ताक्ना लॉर्ड ऍम्टहिलने लिखी थी। ये अनुच्छेद उसीसे लिये गये हैं। देखिए परिशिष्ट १८ भी।