कर दिया है कि हम जिस सिद्धान्तके लिए लड़ रहे हैं, सरकार उसके बारेमें हमारी माँग माननेके लिए तैयार नहीं है, यद्यपि उस सिद्धान्तको मान लेनेपर मिलनेवाले हक वह हमें दे देगी। अतः, यह संघर्ष चलता रहेगा। हम जिस सिद्धान्तके लिए लड़ रहे हैं, उसकी उससे अधिक अच्छी और कोई व्याख्या नहीं हो सकती जो स्वयं ट्रान्सवाल सरकारने की है। लॉर्ड क्रू ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय शिष्टमण्डलको भेजे गये अपने जवाबमें कहते हैं:
"या दूसरी बातोंके सम्बन्धमें"—इस वाक्यांशपर विचार करनेकी बात तो फिलहाल छोड़ी जा सकती है। हमने जो-कुछ माँगा है, वह इतना ही है कि हमें प्रवेशके मामले में कानूनी तौरपर यूरोपीयोंके बराबर हक दिया जाये। स्मरण रहे कि आज हम इस बराबरीके हककी बहालीके लिए लड़ रहे हैं। यह हक इस कानूनके पास होनेतक—बोअरोंके शासनमें और अंग्रेजोंका कब्जा होनेके बाद भी, अर्थात्, सन् १९०६ के अन्ततक—हमें हासिल था। जो सिद्धान्त ट्रान्सवाल-सरकारने स्थापित किया है और साम्राज्य सरकारने जिसपर स्वीकृति दी है, उस सिद्धान्तसे साम्राज्यकी जड़पर ही कुठाराघात होता है। लॉर्ड ऍम्टहिल, जिन्होंने इस कार्यको अपना कार्य बना लिया है, कहते हैं [२]
लॉर्ड महोदय आगे फिर कहते हैं:
हमारी जो स्थिति है, उसे इससे अधिक स्पष्ट शब्दोंमें नहीं कह सकता। अगर ट्रान्सवाल सरकारका सिद्धान्त सही है तो भारतकी जनता साम्राज्यमें साझेदार नहीं रह जाती; और इसी खतरनाक, अनैतिक और घातक सिद्धान्तका विरोध करनेके लिए हम ट्रान्सवालमें लड़ रहे हैं। भारतीय, जिनमें आंग्ल-भारतीय भी शामिल हैं, इस राष्ट्रीय संघर्षमें कैसे मदद दे सकते हैं? स्मरण रहे कि हम इसके निराकरणके लिए सक्रिय कदम भी उठा चुके हैं; अर्थात् हम जिस कानूनको अपनी अन्तरात्माके और, धर्म शब्दका उत्कृष्ट