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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

संघर्षमें हमने जो भी किया है, आप उस सबको अपनी स्वीकृति दे दें; हम तो आपके पास इसलिए आये हैं कि हम जिस संघर्षमें लगे हुए, उसमें आपका प्रोत्साहन, सहानुभूति और प्रेरणा प्राप्त हो। मैं आपका ध्यान चन्द मिनटों तक जिस सवालपर एकाग्र करना चाहता हूँ, वह सवाल, मेरी नम्र रायमें, न सिर्फ ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंके लिए—जो यह संघर्ष चला रहे हैं—बल्कि सारे ब्रिटिश साम्राज्यके लिए गम्भीर महत्त्वका सवाल है। यह बात बिल्कुल सही है कि इस संघर्ष के सम्बन्धमें [सरकारकी ओरसे] समझौतेका एक प्रस्ताव हमारे पास आया था और श्री मायरने यह कहकर स्थितिको आपके सामने बिल्कुल सही तौरपर रख दिया है कि हमने उस प्रस्तावको इसलिए नामंजूर कर दिया कि उसमें उस सिद्धान्तको स्वीकार नहीं किया गया था, जिसके लिए हम लड़ रहे हैं। दक्षिण आफ्रिकामें लगभग १५०,००० ब्रिटिश भारतीय हैं, जो वहाँ यदि दा नहीं तो लगातार ४० वर्षोंसे बसे हुए हैं। [दक्षिण आफ्रिकामें] ब्रिटिश भारतीयों के प्रवेशका आरम्भ नेटालमें गिरमिटिया मजदूरोंकी प्रथासे हुआ। इसके बाद मुक्त ब्रिटिश भारतीय आये, जिन्होंने अपनी यात्राका खर्च खुद उठाया। इन मुक्त ब्रिटिश भारतीयोंके कारण हो व्यापारके क्षेत्रमें उनके प्रतिद्वंद्वियोंके मनमें व्यापारिक ईर्ष्याका भाव जगा। दक्षिण आफ्रिकामें ब्रिटिश भारतीयोंकी मौजूदा समस्याका मूल यही है। उस देशमें उनकी स्थिति बहुत कठिन और नाजुक है। वह बहुत ही ज्यादा अनिश्चित भी है। नेटाल, केप, ऑरेंज फ्री स्टेट और ट्रान्सवालमें ऐसे [कितने ही] कानून हैं, जिनसे उनकी भावनाओं को, उनके आत्मसम्मानको चोट पहुँचती है और जिनसे ईमानदारीसे अपनी जीविका कमानेके उनके अनेक रास्ते बन्द हो जाते हैं। खासकर ट्रान्सवालमें तो परिस्थिति बहुत ही उम्र हो गई है। युद्धके पहले हालत यह थी कि वे भू-सम्पत्ति रख ही नहीं सकते थे। उन्हें नागरिकों के अधिकार नहीं थे, यह कहनेकी तो आवश्यकता ही नहीं है। वे सिर्फ बस्तियों [लोकेशन्स] में रह सकते थे। उन्हें पैदल पटरियोंपर चलने और ट्राम-गाड़ियों में बैठनेकी मनाही थी। बस्तियोंमें ही रहनेकी कठिनाई तो अब दूर हो गई है, यद्यपि इसका कारण सरकारका सद्भाव नहीं, बल्कि यह है कि वहाँके तत्सम्बन्धी कानूनोंमें बादमें त्रुटि पाई गई। आप देख सकेंगे कि दूसरे सारे प्रतिबन्धोंसे ट्रान्सवालमें और सारे दक्षिण आफ्रिकामें ब्रिटिश भारतीयोंकी स्थितिपर कितना गहरा असर पड़ता है। अभी हालतक, यानी सन् १९०६ तक, हम लोग इन सारे प्रतिबन्धोंको सहते रहे। हमें निषेधोंसे उत्पन्न ये सारी कठिनाइयाँ भोगनी पड़ती थीं। हमने सरकारको अर्जियाँ भेजीं। हम ब्रिटिश एजेंटके पास पहुँचे। मेरे मित्र और सह-प्रतिनिधि श्री हाजी हबीब आपको बता सकते हैं कि एक प्रतिष्ठित व्यापारीके रूपमें प्रिटोरियाके अपने निवासकालमें, युद्धके पहले, राहतके लिए, वे ब्रिटिश एजेंटके पास कितनी ही बार गये होंगे, लेकिन उन्हें लगभग कुछ नहीं मिला। फिर भी संकटके समय ब्रिटिश एजेंटका हमें सहारा था। वह हमें सहानुभूति देता था और कभी-कभी कुछ अंशमें हमारी शिकायतें भी दूर कर देता था। [ऐसी स्थिति थी,] किन्तु ब्रिटिश भारतीयोंको तबतक ऐसा नहीं लगा था कि उन्हें वे जो-कुछ कर रहे हैं, उससे आगे बढ़कर कोई कदम उठाना चाहिए। लेकिन जब १९०६ में वह कानून पास हुआ है, जिसके सम्बन्धमें आपको बता रहा हूँ, तब मुझे लगा